२४४] [अष्टपाहुड
उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं।
इन्दिय बलं ण वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं।। १३२।।
इन्दिय बलं ण वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं।। १३२।।
आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम्।
इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम्।। १३२।।
इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम्।। १३२।।
अर्थः––हे मुने! जब तक तेरे जरा (बुढ़ापा) न आवे तथा जब तक रोगरूपी अग्नि
तेरी देहरूपी कुटी को भस्म न करे और जब तक इन्द्रियोंका बल न घटे तब तक अपना हित
करलो।
भावार्थः––वृद्ध अवस्थामें देह रोगोंसे जर्जरित हो जाता है, इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं
करलो।
भावार्थः––वृद्ध अवस्थामें देह रोगोंसे जर्जरित हो जाता है, इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं
तब असमर्थ होकर इस लोकके कार्य उठना–बैठना भी नहीं कर सकता है तब परलोकसम्बन्धी
तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूपका अनुभवादि कार्य कैसे करे? इसलिये यह
उपदेश है कि जब तक सामर्थ्य है तब तक अपना हितरूप कार्य कर लो।। १३२।।
तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूपका अनुभवादि कार्य कैसे करे? इसलिये यह
उपदेश है कि जब तक सामर्थ्य है तब तक अपना हितरूप कार्य कर लो।। १३२।।
आगे अहिंसाधर्म के उपदेशका वर्णन करते हैंः–––
छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं१।। १३३।।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं१।। १३३।।
२षट्जीवान् षडायतनानां नित्यं मनोचचनकाययोगैः।
कुरु दयां परिहर मुनिवर भावय अपूर्व महासत्वम्।। १३३।।
अर्थः––हे मुनिवर! तू छहकाय के जीवों पर दया कर और छह अनायतों को
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१ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘महासत्त’ ऐसा संबोधन पद किया है जिसका सं० छाया ‘महासत्व’ है।
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘षट्जीवषटयतनानां’ एक पद किया है।
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘षट्जीवषटयतनानां’ एक पद किया है।
रे आक्रमे न जरा, गदाग्नि दहे न तनकुटि ज्यां लगी,
बळ इन्द्रियोनुं नव घटे, करी ले तुं निजहित त्यां लगी। १३२।
छ अनायतन तज, कर दया षट्जीवनी ३त्रिविधे सदा,
छ अनायतन तज, कर दया षट्जीवनी ३त्रिविधे सदा,
महासत्त्वने तुं भाव रे! अपूरवपणे हे मुनिवरा! १३३।