भावपाहुड][२४५ मन, वचन, कायके योगों से छोड़ तथा अपूर्व जो पहिले न हुआ ऐसा महासत्त्व अर्थात् सब जीवों में व्यापक (ज्ञायक) महासत्त्व चेतना भावको भा। भावार्थः––अनादिकालसे जीवका स्वरूप चेतनास्वरूप न जाना इसलिये जीवोह की हिंसा की, अतः यह उपदेश है कि–––अब जीवात्माका स्वरूप जानकर, छहकायके जीवोंपर दयाकर। अनादि ही से आप्त, आगम, पदार्थका और इनकी सेवा करनेवालों का सवरूप जाना नहीं, इसलिये अनाप्त आदि छह अनायतन जो मोक्षमार्ग के स्थान नहीं हैं उनको अच्छे समझकर सेवन किया, अतः यह उपदेश है कि अनायतन का परिहार कर। जीवके स्वरूप के उपदेशक ये दोनों ही तूने पहिले जाने नहीं, न भावना की, इसलिये अब भावना कर, इसप्रकार उपदेश है।। १३३।।
आगे कहते हैं कि–––जीवका तथा उपदेश करने वाले का स्वरूप जाने बिना सब जीवों के प्राणों का अहार किया, इसप्रकार दिखाते हैंः–––
भोयसुहकारणट्ठं कदो य तिविहेण सयल जीवाणं।। १३४।।
भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां।। १३४।।
अर्थः––हे मुने! तूने अनंतभवसागरमें भ्रमण करते हुए, सकल त्रस, स्थावर जीवोंके
भावार्थः––अनादिकाल से जिनमतके उपदेशके बिना अज्ञानी होकर तूने त्रस, स्थावर
भोगाभिलाष छोड़, यह उपदेश है।। १३४।।
फिर कहते हैं कि ऐसे प्राणियोंकी हिंसा से संसार में भ्रमण कर दुःख पायाः––
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