२४६] [अष्टपाहुड
पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि।
उप्पजंत मरंतो पत्तो सि णिरंतरं दुक्खं।। १३५।।
उप्पजंत मरंतो पत्तो सि णिरंतरं दुक्खं।। १३५।।
प्राणिवधैः महायशः! चतुरशीतिलक्षयोनिमध्ये।
उत्पद्यमानः क्षियमाणः प्राप्तोऽसि निरंतरं दुःखम्।। १३५।।
उत्पद्यमानः क्षियमाणः प्राप्तोऽसि निरंतरं दुःखम्।। १३५।।
अर्थः––हे मुने! हे महायश! तूने प्राणियों के घात से चौरासी लाख योनियों के मध्य में
उत्पन्न होते हुए ओर मरते हुए निरंतर दुःख पाया।
भावार्थः––जिनमत के उपदेश के बिना, जीवोंकी हिंसासे यह जीव चौरासी लाख
योनियोंमें उत्पन्न होता है और मरता है। हिंसा से कर्मबंध होता है, कर्मबन्ध के उदय से
उत्पत्ति – मरणरूप संसार होता है। इसप्रकार जन्म – मरण के दुःख सहता है, इसलिये
जीवोंकी दया का उपदेश है।। १३५।।
आगे उस दया ही का उपदेश करते हैंः––––
उत्पत्ति – मरणरूप संसार होता है। इसप्रकार जन्म – मरण के दुःख सहता है, इसलिये
जीवोंकी दया का उपदेश है।। १३५।।
आगे उस दया ही का उपदेश करते हैंः––––
जीवाणमथयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं।
कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए।। १३६।।
कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए।। १३६।।
जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभूतसत्त्वानाम्।
कल्याणसुखनिमित्तं परंपरया त्रिविध शुद्धया।। १३६।।
कल्याणसुखनिमित्तं परंपरया त्रिविध शुद्धया।। १३६।।
अर्थः––हे मुने! जीवों को और प्राणीभूत सत्त्वों को अपना परंपरा से कल्याण और सुख
होने के लिये मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान दे।
भावार्थः––‘जीव’ पंचेन्द्रिय को कहते हैं, ‘प्राणी’ विकलत्रय को कहते हैं, ‘भूत’
वनस्पति को कहते हैं और ‘सत्त्व’ पृथ्वी, अप्, तेज, वायु को कहते हैं। इन सब जीवोंको
अपने समान जानकर अभयदान देने का उपदेश है। इससे शुभ प्रकृतियों का बंध होने से
अभ्युदयका सुख होता है,
अपने समान जानकर अभयदान देने का उपदेश है। इससे शुभ प्रकृतियों का बंध होने से
अभ्युदयका सुख होता है,
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प्राणीवधोथी हे महायश! योनि लख चोराशीमां,
उत्पत्तिनां ने मरणनां दुःखो निरंतर तें लह्यां। १३५।
तुं भूत–प्राणी–सत्त्व–जीवने त्रिविध शुद्धि वडे मुनि,
उत्पत्तिनां ने मरणनां दुःखो निरंतर तें लह्यां। १३५।
तुं भूत–प्राणी–सत्त्व–जीवने त्रिविध शुद्धि वडे मुनि,
दे अभय, जे कल्याणसौख्य निमित्त पारंपर्यथी। १३६।