Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 138 (Bhav Pahud).

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२४८] [अष्टपाहुड
विवाद करते हैं। कई कहते हैं जीव जानता नहीं है, कई कहते हैं कुछ करता नहीं है, कई
कहते हैं भोगता नहीं है, कई कहते हैं उत्पन्न नहीं होता है, कई कहते हैं नष्ट नहीं होता है,
कई कहते हैं गमन नहीं करता है और कई कहते हैं ठहरता नहीं है–––इत्यादि क्रिया के
अभाव से पक्षपात से सर्वथा एकान्ती होते हैं। इनके संक्षेपसे चौरासी भेद हैं।

कई
अज्ञानवादी हैं, इनमें कई तो सर्वज्ञ का अभाव मानते हैं, कई कहते हैं जीव अस्ति
है यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव नास्ति है यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव नित्य है
यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव अनित्य है यह कौन जाने? इत्यादि संशय–विपर्यय–
अनध्यवसायरूप होकर विवाद करते है। इनके संक्षेपसे सड़सठ भेद हैं। कई विनयवादी हैं,
उनमें से कई कहते हैं देवादिकके विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं गुरुके विनय से सिद्धि है,
कई कहते हैं माताके विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि पिता के विनय से सिद्धि है, कई
कहते हैं कि राजा के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि सेवक के विनय से सिद्धि है,
इत्यादि विवाद करते हैं। इनके संक्षेप से बत्तीस भेद हैं। इसप्रकार सर्वथा एकान्तवादियोंके
तीनसौत्रेसठ भेद संक्षेप से हैं, विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं, इनमें कई ईश्वरवादी हैं,
कई कालवादी हैं, कई स्वभाववादी हैं, कई विनयवादी हैं, कई आत्मवादी हैं। इनका स्वरूप
गोम्मटसारादि ग्रन्थोंसे जानना, ऐसे मिथ्यात्व के भेद हैं।। १३७।।

आगे कहते हैं कि अभव्यजीव अपनी प्रकृतिको नहीं छोड़ता है, उसका मिथ्यात्व नहीं
मिटता हैः–––
ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट्ठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं।
गुडदुद्धं पि पिता ण पण्णया णिव्विसा होंति।। १३८।।
न मुंचति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम्।
गुडदुग्धमपि पिबंतः न पन्नगाः निर्विषाः भवंति।। १३८।।
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सुरीते सुणी जिनधर्म पण प्रकृति अभअ नहीं तजे,
साकर सहित क्षीरपानथी पण सर्प नहि निर्विष बने। १३८।