भावपाहुड][२४९
अर्थः––अभव्यजीव भलेप्रकार जिनधर्मको सुनकर भी अपनी प्रकृतिको नहीं छोड़ता है । यहाँ दृष्टाहत है कि सर्प गुड़सहित दूधको पीते रहने पर भी विष रहित नहीं होता है। भावार्थः––जो कारण पाकर भी नहीं छूटता है उसे ‘प्रकृति’ या ‘स्वभाव’ कहते हैं। अभव्यका यह स्वभाव है कि जिसमें अनेकान्त तत्त्वस्वरूप है ऐसे वीतराग– विज्ञानस्वरूप जिनधर्म मिथ्यात्व को मिटाने वाला है, उसका भले प्रकार स्वरूप सुनकर भी जिसका मिथ्यात्वस्वरूप भाव नहीं बदलता है वह वस्तुका स्वरूप है, किसी का नहीं किया हुआ है। यहाँ, उपदेश – अपेक्षा इसप्रकार जानना कि जो अभव्यरूप प्रकृति तो सर्वज्ञ गम्य है, तो भी अभव्य की प्रकृति के समान अपनी प्रकृति न रखना, मिथ्यात्व को छोड़ना यह उपदेश है।। १३८।। आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैंः–––
धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि।। १३९।।
धर्म जिनप्रज्ञप्तं अभव्यजीवः न रोचयति।। १३९।।
अर्थः––दुर्मत जो सर्वथा एकान्त मत, उनसे प्ररूपित अन्यमत, वे ही हुए दोष उनके
द्वारा अपनी दुर्बुद्धि से (मिथ्यात्व से) आच्छादित है बुद्धि जिसकी, ऐसा अभव्यजीव है उसे
भावार्थः––मिथ्यात्व के उपदेश से अपनी दुर्बुद्धि द्वारा जिसके पास मिथ्यादृष्टि है
अभव्यजीव को तो सर्वज्ञ जानते हैं, परन्तु ये अभव्य जीवके चिन्ह हैं, इनसे परीक्षा द्वारा जाना
जाता है।। १३९।।
आगे कहते हैं कि ऐसे मिथ्यात्व के निमित्त से दुर्गति का पात्र होता हैः–––