२५०] [अष्टपाहुड
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मिथ्यात्वघरसंसारमां रखड्यो अनादि काळथी। १४१।
कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडि भत्ति संजुत्तो।
कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ।। १४०।।
कुत्सित धर्मे रतः कुत्सितपाषंडि भक्ति संयुक्तः।
कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगति भाजनं भवति।। १४०।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जो कुत्सित (निंद्य) मिथ्याधर्म में रत (लीन) हैं, जो
पाखण्डी निंद्यभेषियों की भक्तिसंयुक्त हैं, जो निंद्य मिथ्यात्वधर्म पालता है, मिथ्यादृष्टियों की
भक्ति करता है और मिथ्या अज्ञानतप करता है, वह दुर्गति ही पाता है, यह उपदेश है।।
१४०।।
आगे इस ही अर्थको दृढ़ करते हुए कहते है कि ऐसे मिथ्यात्वसे मोहित जीव संसार
भ्रमण करता हैः–––
इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो।
भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि।। १४१।।
इति मिथ्यात्वावासे कुनयशास्त्रैः मोहितः जीवः।
भ्रमितः अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय।। १४१।।
अर्थः–– इति अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार मिथ्यात्वका आवास (स्थान) यह मिथ्यादृष्टियों का
संसार में कुनय – सर्वथा एकान्त उन सहित कुशास्त्र, उनसे मोहित (बेहोश) हुआ यह जीव
अनादिकाल से लगाकर संसार में भ्रमण कर रहा है, ऐसे हे धीर मुने! तू विचार कर।
भावार्थः––आचार्य कहते हैं कि पूर्वोक्त तीन सौ त्रेसठ कुवादियों से सर्वथा
एकांतपक्षरूप कुनयद्वारा रचे हुए शास्त्रोंसे मोहित होकर यह जीव संसार में अनादिकालसे
भ्रमण करता है, सो हे धीर मुनि! अब ऐसे कुवादियों की संगति भी मत कर, यह उपदेश है।।
१४१।।
कुत्सित धरम–रत, भक्ति जे पाखंडी कुत्सितनी करे,
कुत्सित करे तप, तेह कुत्सित गति तणुं भाजन बने। १४०।
हे धीर! चिंतव–जीव आ मोहित कुनय–दुःशास्त्रथी,