भावपाहुड][२५१
आगे कहते हैं कि–––पूर्वोक्त तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड़ियों का मार्ग छोड़कर जिनमार्ग में मन लगाओः–––
रुंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा।। १४२।।
रुन्द्धि मनः जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं बहुना।। १४२।।
मनको रोक (लगा) यह संक्षेप है और निरर्थक प्रलापरूप कहनेसे क्या?
भावार्थः––इसप्रकार मिथ्यात्वका वर्णन किया। आचार्य कहते हैं कि बहुत निरर्थक वचनालाप से क्या? इतना ही संक्षेप से कहते है कि तीनसौ त्रेसठ कुवादि पाखण्डी कहे उनका मार्ग छोड़कर जिनमार्ग में मनको रोको, अन्यत्र न जाने दो। यहाँ इतना और विशेष जानना कि––कालदोष से इस पंचमकाल में अनेक पक्षपातसे मन–मतांतर हो गये हैं, उनको भी मिथ्या जानकर उनका प्रसंग न करो। सर्वथा एकान्तका पक्षपात छोड़कर अनेकान्तरूप जिनवचन की शरण लो।। १४२।।
आगे सम्यग्दर्शनका निरूपण करते हैं, पहिले कहते हैं कि’सम्यग्दर्शन रहित प्राणी चलता हुआ मृतक’ हैः–––
शवः लोके अपूज्यः लोकोत्तरे चलशवः।। १४३।।
सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसबओ।। १४३।।
अर्थः––लोकमें जीवरहित शरीरको ‘शव’ कहते हैं, ‘मृतक’ या ‘मुरदा’ कहते हैं, वैसे
ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष ‘चलता हुआ मृतक’ है।
जिनमार्गमां मन रोक; बहु प्रलपन निरर्थथी शुं भला? १४२।
जीवमुक्त शब कहेवाय‘चल शब’ जाण दर्शनमुक्तने;