२५२] [अष्टपाहुड मृतक तो लोकमें अपूज्य है, अग्निसे जलाया जाता है या पृथ्वी में गाड़ दिया जाता है और ‘दर्शनरहित चलता हुआ मुरदा’ लोकोत्तर जो मुनि – सम्यग्दृष्टि उनमें अपूज्य है, वे उसको वंदनादि नहीं करते हैं। मुनिभेष धारण करता है तो भी उसे संघके बाहर रखते हैं अथवा परलोकमें निंद्यगति पाकर अपूज्य होता है। भावार्थः––सम्यग्दर्शन बिना पुरुष मृतकतुल्य है।। १४३।।
आगे सम्यक्त्वका महानपना कहते हैः–––
जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं।
अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं।। १४४।।
अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं।। १४४।।
यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजः मृगकुलानां सर्वेषाम्।
अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावकद्विविध धर्माणाम्।। १४४।।
अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावकद्विविध धर्माणाम्।। १४४।।
अर्थः––जैसे ताराओं के समूह में चंद्रमा अधिक हैं और मृगकुल अर्थात् पशुओं के समूह
में मृगराज (सिंह) अधिक हैं, वैसे ही ऋषि (मुनि) और श्रावक इन दो प्रकार के धर्मों में
सम्यक्त्व हैं वह अधिक हैं।
भावार्थः––व्यवहारधर्म की जितनी प्रवृत्तियाँ हैं उनमें सम्यक्त्व अधिक, इसके बिना सब
भावार्थः––व्यवहारधर्म की जितनी प्रवृत्तियाँ हैं उनमें सम्यक्त्व अधिक, इसके बिना सब
संसारमार्ग बंधका कारण है।। १४४।।
फिर कहते हैंः–––
फिर कहते हैंः–––
जह फणिराओ १सोहइ फणमणिमाणिक्ककिरण विप्फुरिओ।
तह विमल दंसणधरो २जिणभत्ती पवयणे जीवो।। १४५।।
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१ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘रेहइ’ पाठ है जिसका संस्कृत छाया में ‘राजते’ पाठान्तर है।
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘जिणभत्तीपवयणो’ ऐसा एक पद रूप पद है, जिसकी संस्कृत ‘जिनभक्तिप्रवचन’ है। यह
पाठ यतिभंग सा मालूम होता है।
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘जिणभत्तीपवयणो’ ऐसा एक पद रूप पद है, जिसकी संस्कृत ‘जिनभक्तिप्रवचन’ है। यह
पाठ यतिभंग सा मालूम होता है।
ज्यम चंद्र तारागण विषे, मृगराज सौ मृगकुल विषे,
त्यम अधिक छे सम्यक्त्व ऋषिश्रावक–द्विविध धर्मो विषे। १४४।
नागेन्द्र शोभे फेणमणिमाणिकय किरणे चमकतो,
ते रीत शोभे शासने जिनभक्त दर्शननिर्मळो। १४५।