भावपाहुड][२५३
यथा फणिराजः शोभते फणमणि माणिक्यकिरण विस्फुरितः।
तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः।। १४५।।
तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः।। १४५।।
अर्थः––जैसे फणिराज (धरणेन्द्र) है सो फण जो सहस्त्र फण उनमें लगे हुए मणियों
के बीच जो लाल – माणिक्य उनकी किरणोंसे विस्फुरित (देदीप्यमान) शोभा पाता है, वैसे ही
जिनभक्तिसहित निर्मल सम्यक्दर्शन का धारक जीव प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग के प्ररूपण में
शोभा पाता है।
भावार्थः–––सम्यक्त्व सहित जीवकी जिन–प्रवचनमें बड़ी अधिकता है। जहाँ – तहाँ
शोभा पाता है।
भावार्थः–––सम्यक्त्व सहित जीवकी जिन–प्रवचनमें बड़ी अधिकता है। जहाँ – तहाँ
(सब जगह) शास्त्रों में सम्यक्त्वकी ही प्रधानता कही है।। १४५।।
आगे सम्यग्दर्शन सहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैंः–––
जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले।
भाविय १तववयविमलं २जिणलिंगं दंसणविसुद्धं।। १४६।।
भाविय १तववयविमलं २जिणलिंगं दंसणविसुद्धं।। १४६।।
यथा तारागणसहितं शशधरबिंबं खमंडले विमले।
भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शन विशुद्धम्।। १४६।।
भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शन विशुद्धम्।। १४६।।
अर्थः––जैसे निर्मल आकाश मंडल में तारोंके समूह सहित चन्द्रमाका बिंब शोभा पाता
है, वैसे ही जिनशासन में दर्शनसे विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतोंसे निर्मल
जिनलिंग है सो शोभा पाता है।
भावार्थः––जिनलिंग अर्थात् ‘निर्ग्रंथ मुनिभेष’ यद्यपि तप–व्रतसहित निर्मल है, तो भी
सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं पाता है। इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है।।
१४६।।
१४६।।
आगे कहते हैं कि ऐसा जानकर दर्शनरत्नको धारण करो, ऐसा उपदेश करते हैंः–– –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘तह वयविमलं’ ऐसा पाठ है, जिसकी संस्कृत ‘तथा व्रतमिलं’ है। २ इस गाथाका चतुर्थ पाद यतिभंग है। इसकी जगह ‘जिनलिगं दंसणेम सुविसुद्धं’ होना ठीक जाँचता है।
शशिबिंब तारकवृंद सह निर्मळ नभे शोभे घणुं,
त्यम शोभतुं तपव्रतविमळ जिनलिंग दर्शन निर्मळुं। १४६।