Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 147-148 (Bhav Pahud).

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२५४] [अष्टपाहुड
१ पाठान्तरः – जीवो णिद्दिट्ठो।
ईम जाणीने गुणदोष धारो भावथी दगरत्नने,
इय णाउं गुणदोसं दंसणरयणं घरेह भावेण।
सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स।। १४७।।
इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरतभावेन।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य।। १४७।।

अर्थः
––हे मुने! तू ‘इति’ अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण और मिथ्यात्वके
दोषोंको जानकर सम्यक्त्वरूपी रत्नको भावपूर्वक धारण कर। यह गुणरूपी रत्नोंमें सार है और
मोक्षरूपी मंदिरका प्रथम सोपान है अर्थात् चढ़ने के लिये पहिली सीढ़ी है।

भावार्थः––जितने भी व्यवहार मोक्षमार्ग के अंग हैं, (गृहस्थके दान – पूजादिक और
मुनिके महाव्रत – शीलसंयमादिक) उन सबमें सार सम्यग्दर्शन है, इससे सब सफल हैं,
इसलिये मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दर्शन अंगीकार करो, यह प्रधान उपदेश है।। १४७।।

आगे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन किसको होता है? जो जीव, जीवपदार्थ के स्वरूप को
जानकर इसकी भावना करे, इसका श्रद्धान करके अपने को जीव पदार्थ जानकर अनुभव द्वारा
प्रतीति करे उसके होता है। इसलिये अब यह जीवपदार्थ कैसा है उसका स्वरूप कहते हैंः––

कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य।
दंसणणाणुवओगो
णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं।। १४८।।
कर्त्ता भोक्ता अमूर्त्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनः च।
दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः।। १४८।।
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२ पाठान्तरः – जीवः निर्दिष्टः।
जे सार गुणरत्नो विषे ने प्रथम शिवसोपान छे। १४७।

कर्ता तथा भोक्ता, अनादि–अनंत, देहप्रमाण ने,
वणमूर्ति, दगज्ञानोपयोगी जीव भाख्यो जिनवरे। १४८।