अनुभव में आता है और उसमें अज्ञानके निमित्त से इष्ट– अनिष्ट बुद्धिरूप राग–द्वेष–मोह
भावके द्वारा ज्ञान– दर्शनमें कलुषतारूप सुख–दुःखादिक भाव अनुभवमें आते हैं। यह जीव
निजभावनारूप सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है तब ज्ञान – दर्शन – सुख –वीर्यके घातक कर्मोंका
नाश करता है, ऐसा दिखाते हैंः–––
और जीवके सर्वथा भेद मानते हैं, बौद्धमतका विशेष ‘विज्ञानाद्वैतवादी’ ज्ञानमात्र ही मानता है
और वेदांती ज्ञानका कुछ निरूपण ही नहीं करता है, इन सबका निषेध है।
जीव नाम कैसे होता? इसलिये अजीव का स्वरूप क्या है, वैसा ही उसका श्रद्धान आगम
अनुसार करना। इसप्रकार अजीव पदार्थ का स्वरूप जानकर और दोनोंके संयोग से अन्य
आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन भावों की प्रवृत्ति होती है। इनका आगम के अनुसार
स्वरूप जानकर श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१४८।।
णिट्ठवइ भविय जीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो।। १४९।।
निष्ठापयति भव्यजीवाः सम्यक् जिनभावनायुक्तः।। १४९।।
अर्थः––सम्यक्प्रकार जिनभावनासे युक्त भव्यजीव है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण,
मोहनीय, अन्तराय इन चार घातिया कर्मोंका निष्ठानपन करता है अर्थात् सम्पूर्ण अभाव करता
है।