भावपाहुड][२५७
भावार्थः––दर्शनका घातक दर्शनावरण कर्म है, ज्ञानका घातक ज्ञानावरण कर्म है, सुखका घातक मोहनीय कर्म है, वीर्यका घातक अन्तराय कर्म है। इनका नाश कौन करता है? सम्यक्प्रकार जिनभावना भाकर अर्थात् जिनआज्ञा मानकर जीव–अजीव आदि तत्त्वका यथार्थ निश्चय कर श्रद्धावान् हुआ हो वह जीव करता है। इसलिये जिन आज्ञा मानकर यथार्थ श्रद्धान करो यह उपदेश है।। १४९।।
आगे कहते हैं कि इन घातिया कर्मोंका नाश होने पर ‘अनन्तचतुष्टय’ प्रकट होते हैंः– ––
बलसोक्खणाणदंसण चत्तारि वि पायडा गुणा होंति।
णट्ठे घाइयउक्के लोयालोयं पयासेदि।। १५०।।
णट्ठे घाइयउक्के लोयालोयं पयासेदि।। १५०।।
बल सौख्य ज्ञानदर्शनानि चत्वारोऽपि प्रकटागुणाभवंति।
नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति।। १५०।।
नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति।। १५०।।
अर्थः––पूर्वोक्त चार घातिया कर्मोंका नाश होने पर अनन्त ज्ञान–दर्शन–सुख और बल
(–वीर्य) ये चार गुण प्रगट होते हैं। जब जीवके ये गुणकी पूर्ण निर्मल दशा प्रकट होती है
तब लोकालोकको प्रकाशित करता है।
भावार्थः––घातिया कर्मोंका नाश होने पर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और
भावार्थः––घातिया कर्मोंका नाश होने पर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और
अनन्तवीर्य ये अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं। अनन्त दर्शन–ज्ञानसे छह द्रव्योंसे भरे हुए इस
लोकमें अनन्तानन्त जीवोंको, इनसे भी अनन्तानन्तगुणे पुद्गलोंको तथा धर्म–अधर्म–आकाश ये
तीनो द्रव्य और असंख्यात कालाणु इन सब द्रव्योंकी अतीत, अनागत और वर्तमानकाल संबन्धी
अनन्तपर्यायोंको भिन्न–भिन्न एक समय में स्पष्ट देखता है और जानता है। अनन्तसुख से
अत्यंततृप्तिरूप है और अनन्तशक्ति द्वारा अब किसी भी निमित्त से अवस्था पलटती (बदलती)
लोकमें अनन्तानन्त जीवोंको, इनसे भी अनन्तानन्तगुणे पुद्गलोंको तथा धर्म–अधर्म–आकाश ये
तीनो द्रव्य और असंख्यात कालाणु इन सब द्रव्योंकी अतीत, अनागत और वर्तमानकाल संबन्धी
अनन्तपर्यायोंको भिन्न–भिन्न एक समय में स्पष्ट देखता है और जानता है। अनन्तसुख से
अत्यंततृप्तिरूप है और अनन्तशक्ति द्वारा अब किसी भी निमित्त से अवस्था पलटती (बदलती)
नहीं है। ऐसे अनन्तचतुष्टयरूप जीव का निज स्वभाव प्रकट होता है, इसलिये जीवके
स्वरूपका ऐसा परमार्थ से श्रद्धान करना वह ही सम्यग्दर्शन है।। १५०।।
स्वरूपका ऐसा परमार्थ से श्रद्धान करना वह ही सम्यग्दर्शन है।। १५०।।
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चउघातिनाशे ज्ञान–दर्शन–सौख्य–बळ चारे गुणो
प्राकट्य पामे जीवने, परकाश लोकालोकनो। १५०।