भावपाहुड][२६५
भावार्थः––अट्ठाईस मूलगुण, दशलक्षण धर्म, तीन गुप्ति और चौरासी लाख उत्तरगुणोंकी मालासहित मुनि जिनमतमें चन्द्रमाके समान शोभा पाता है, ऐसे मुनि अन्यमत में नहीं हैं।। १६०।। आगे कहते हैं कि जिनके इसप्रकार विशुद्ध भाव हैं वे सत्पुरुष तीर्थंकर आदि पदके सुखोंको पाते हैंः––––
चक्कहररामकेसवसुरवरजिणणहराइसोक्खाइं।
चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्ध भावा णरा पत्ता।। १६१।।
चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्ध भावा णरा पत्ता।। १६१।।
चक्रधररामकेशवसुरवरजिनगणधरादि सौख्यानि।
चारणमुन्यर्द्धी; विशुद्धभावा नराः प्राप्ताः।। १६१।।
चारणमुन्यर्द्धी; विशुद्धभावा नराः प्राप्ताः।। १६१।।
अर्थः––विशुद्धभाव वाले ऐसे नर मुनि हैं वह चक्रधर (–चक्रवर्ती, छह खंडका राजेन्द्र)
राम (–बलभद्र) केशव (–नारायण, अर्द्धचक्री) सुरबर (देवोंका इन्द्र) जिन (तीर्थंकर
पंचकल्याणक सहित, तीनलोकसे पूज्य पद) गणधर (चार ज्ञान और सप्तऋद्धिके धारक मुनि)
इनके सुखोंको तथा चारणमुनि (जिनके आकाशगामिनी आदि ऋद्धियाँ पाई जाती हैं) की
ऋद्धियोंको प्राप्त हुए।
भावार्थः––पहिले इसप्रकार निर्मल भावोंके धारक पुरुष हुए वे इस प्रकारके पदों के
सुखोंको प्राप्त हुए, अब जो ऐसे होंगे वे पायेंगे, ऐसा जानो।। १६१।।
आगे कहते हैं कि मोक्षका सुख भी ऐसे ही पाते हैंः–––
आगे कहते हैं कि मोक्षका सुख भी ऐसे ही पाते हैंः–––
सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तमं परमविमलमतुलं।
पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा।। १६२।।
पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा।। १६२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
चक्रेश–केशव–राम–जिन–गणी–सुरवरादिक–सौख्यने,
चारणमुनींद्रसुऋद्धिने सुविशुद्धभाव नरो लहे। १६१।
जिनभावनापरिणत जीवो वरसिद्धि सुख अनुपम लहे,
चारणमुनींद्रसुऋद्धिने सुविशुद्धभाव नरो लहे। १६१।
जिनभावनापरिणत जीवो वरसिद्धि सुख अनुपम लहे,
शिव, अतुल, उत्तम, परम निर्मळ, अजर–अमर स्वरूप जे। १६२।