गौरव और रसगौरव। जो कुछ तपोबलसे अपनी महंतता लोकमें हो उसका अपनेको मद आवे,
उसमें हर्ष माने वह ‘ऋद्धिगौरव’ है। यदि अपने शरीरमें रोगादिक उत्पन्न न हों तो सुख माने
तथा प्रमाद युक्त होकर अपना महंतपना माने ‘सातगौरव’ है। यदि मिष्ट–पुष्ट रसीला
आहारादिक मिले तो उसके निमित्तसे प्रमत्त होकर शयनादिक करे ‘रसगौरव’ है। मुनि
इसप्रकार गौरव से तो रहित हैं और परजीवों की करुणासे सहित हैं; ऐसा नहीं है कि
परजीवोंसे मोहममत्व नहीं है इसलिये निर्दय होकर उनको मारते हैं, परन्तु जब तक राग अंश
रहता है तब तक पर जीवों की करुणा ही करते हैं, उपकारबुद्धि रहती है। इसप्रकार ज्ञानी
मुनि पाप जो अशुभकर्म उसका चारित्र के बल से नाश करते हैं।। १५९।।
तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे।। १६०।।
तारावलीपरिकरितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथं।। १६०।।
मुनीन्द्ररूपी चंद्रमा शोभा पाता है।
सघळा दुरितरूप थंभने घाते चरण–तरवारथी। १५९।
तारावली सह जे रीते पूर्णेन्दु शोभे आभमां,