भावपाहुड][२६७
ए रीत सर्वज्ञे कथित आ भावप्राभृत–शास्त्रनां
किं जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खो य।
अण्णे वि य वावारा भावम्मि परिठ्ठिया सव्वे।। १६४।।
किं जल्पितेन बहुना अर्थः धर्मः च काममोक्षः च।
अन्ये अपि च व्यापाराः भावे परिस्थिताः सर्वे।। १६४।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या? धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और अन्य को
कुछ व्यापार है वह सब ही शुद्धभावमें समस्तरूपसे स्थित है।
भावार्थः––पुरुषके चार प्रयोजन प्रधान हैं––धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। अन्य भी जो कुछ
मंत्रसाधनादिक व्यापार हैं वे आत्माके शुद्ध चैतन्यपरिणामस्वरूप भावमें स्थित हैं। शुद्धभावसे सब
सिद्धि है, इसप्रकार संक्षेपसे कहना जानो, अधिक क्या कहें? ।। १६४।।
आगे इस भावपाहुडको पूर्ण करते हुए इसके पढ़ने–सुनने व भावना करनेका
(चिन्तनका) उपदेश करते हैंः–––
इय भावपाहुडभिणं सव्वंबुद्धेहि देसियं सम्मं।
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं।। १६५।।
इति भावप्राभृतमिदं सर्व बुद्धैः देशितं सम्यक्।
यः पठति श्रृणोति भावयति सः प्राप्नोति अविचलं स्थानम्।। १६५।।
अर्थः––इसप्रकार इस भावपाहुड का सर्वबुद्ध – सर्वज्ञदेवने उपदेश दिया है, इसको जो
भव्यजीव सम्यक्प्रकार पढ़ते हैं, सुनते हैं और इसका चिन्तन करते हैं चे शाश्वत सुखके स्थान
मोक्षको पाते हैं।
भावार्थः–– यह भावपाहुड ग्रंथ सर्वज्ञकी परम्परा से अर्थ लेकर आवार्य ने कहा है,
इसलिये सर्वज्ञका ही उपदेश है, केवल छद्मस्थ का ही कहा हुआ नहीं है, इसलिये आचार्य ने
अपना कर्त्तव्य प्रधान कर नहीं कहा है। इसके पढ़ने –सुननेका फल मोक्ष कहा, वह युक्त ही
है। शुद्धभाव से मोक्ष होता है और इसके पढ़ने से शुद्ध भाव होते हैं।
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बहु कथन शुं करवुं? अरे! धर्मार्थ कामविमोक्ष ने
बीजाय बहु व्यापार, ते सौ भाव मांही रहेल छे। १६४।
सुपठन–सुश्रवण–सुभावनाथी वास अविचळ धाममां। १६५।