Ashtprabhrut (Hindi).

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२६८] [अष्टपाहुड
[नोंध–––यहाँ सवश्रयी निश्चय में शुद्धता करे तो निमित्त में शास्त्र–पठनादि में व्यवहारसे
निमित्तकारण – परंपरा कारण कहा जाय। अनुपचार – निश्चय बिना उपचार –व्यवहार कैसे?
इसप्रकार इसका पढ़ना, सुनना, धारण और भावना करना परंपरा मोक्षका कारण है। इसलिये
हे भव्य जीवो! इस भावपाहुड को पढ़ो, सुनो, सुनाओ, भावो और निरन्तर अभ्यास करो
जिससे भाव शुद्ध हों और सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी पूर्णताको पाकर मोक्षको प्राप्त करो
तथा वहाँ परमानन्दरूप शाश्वत सुख को भोगो।

इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दनामक आचार्य ने भावपाहुड ग्रंथ पूर्ण किया।

इसका संक्षेप ऐसे है–––जीव नामक वस्तुका एक असाधारण शुद्ध अविनाशी चेतन
स्वभाव है। इसकी शुद्ध, अशुद्ध दो परिणति हैं। शुद्ध दर्शन–ज्ञानोपयोगरूप परिणमना ‘शुद्ध
परिणति’ है, इसको शुद्धभाव कहते हैं। कर्मके निमित्तसे राग–द्वेष–मोहादिक विभावरूप
परिणमना ‘अशुद्ध परिणति’ है, इसको अशुद्ध भाव कहते हैं। कर्मका निमित्त अनादि से है
इसलिये अशुद्धभावरूप अनादिही से परिणमन कर रहा है। इस भाव से शुभ– अशुभ कर्मका
बंध होता है, इस बंधके उदय से फिर शुभ या अशुभ भावरूप
(–अशुद्ध भावरूप) परिणमन
करता है, इसप्रकार अनादि संतान चला आता है। जब इष्टदेवतादिककी भक्ति, जीवोंकी दया,
उपकार, मंदकषायरूप परिणमन करता है तब तो शुभकर्मका बंध करता है; इसके निमित्तसे
देवादिक पर्याय पाकर कुछ सुखी होता है। जब विषय–कषाय तीव्र परिणामरूप परिणमन
करता है तब पापका बंध करता है, इसके उदय में नरकादिक पाकर दुःखी होता है।
इसप्रकार संसार में अशुद्धभाव से अनादिकालसे यह जीव भ्रमण करता है। जब कोई
काल ऐसा आवे जिसमें जिनेश्वरदेव––सर्वज्ञ वीतरागके उपदेश को प्राप्ति हो और उसका
श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करे तब स्व और परका भेदज्ञान करके शुद्ध– अशुद्ध भावका
स्वरूप जानकर अपने हित – अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण हो तब शुद्धदर्शनज्ञानमयी
शुद्ध चेतना परिणमन को तो ‘हित’ जाने, इसका फल संसार की निवृत्ति है इसको जाने,
और अशुद्धभावका फल संसार है इसको जाने, तब शुद्धभावके ग्रहणका और अशुद्धभावके
त्यागका उपाय करे। उपाय का स्वरूप जैसे सर्वज्ञ–वीतरागके आगममें कहा है वैसे करे।
इसका स्वरूप निशचय–व्यवहारात्मक सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग कहा है।
शुद्धभावरूप के श्रद्धान –ज्ञान –चारित्र को ‘निश्चय’ कहा है और जिनदेव सर्वज्ञ–वीतराग
तथा उनके वचन और उन वचनोंके अनुसार प्रवर्तनेवाले मुनि श्रावक उनकी भक्ति वन्दना
विनय वैयावृत्य करना ‘व्यवहार’ है, क्योंकि यह मोक्षमार्ग में प्रवर्ताने को उपकारी हैं। उपकारी
का उपकार मानना न्याय है, उपकार लोपना अन्याय है।