निमित्तकारण – परंपरा कारण कहा जाय। अनुपचार – निश्चय बिना उपचार –व्यवहार कैसे?
इसप्रकार इसका पढ़ना, सुनना, धारण और भावना करना परंपरा मोक्षका कारण है। इसलिये
हे भव्य जीवो! इस भावपाहुड को पढ़ो, सुनो, सुनाओ, भावो और निरन्तर अभ्यास करो
जिससे भाव शुद्ध हों और सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी पूर्णताको पाकर मोक्षको प्राप्त करो
तथा वहाँ परमानन्दरूप शाश्वत सुख को भोगो।
परिणति’ है, इसको शुद्धभाव कहते हैं। कर्मके निमित्तसे राग–द्वेष–मोहादिक विभावरूप
परिणमना ‘अशुद्ध परिणति’ है, इसको अशुद्ध भाव कहते हैं। कर्मका निमित्त अनादि से है
इसलिये अशुद्धभावरूप अनादिही से परिणमन कर रहा है। इस भाव से शुभ– अशुभ कर्मका
बंध होता है, इस बंधके उदय से फिर शुभ या अशुभ भावरूप
उपकार, मंदकषायरूप परिणमन करता है तब तो शुभकर्मका बंध करता है; इसके निमित्तसे
देवादिक पर्याय पाकर कुछ सुखी होता है। जब विषय–कषाय तीव्र परिणामरूप परिणमन
करता है तब पापका बंध करता है, इसके उदय में नरकादिक पाकर दुःखी होता है।
श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करे तब स्व और परका भेदज्ञान करके शुद्ध– अशुद्ध भावका
स्वरूप जानकर अपने हित – अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण हो तब शुद्धदर्शनज्ञानमयी
शुद्ध चेतना परिणमन को तो ‘हित’ जाने, इसका फल संसार की निवृत्ति है इसको जाने,
और अशुद्धभावका फल संसार है इसको जाने, तब शुद्धभावके ग्रहणका और अशुद्धभावके
त्यागका उपाय करे। उपाय का स्वरूप जैसे सर्वज्ञ–वीतरागके आगममें कहा है वैसे करे।
तथा उनके वचन और उन वचनोंके अनुसार प्रवर्तनेवाले मुनि श्रावक उनकी भक्ति वन्दना
विनय वैयावृत्य करना ‘व्यवहार’ है, क्योंकि यह मोक्षमार्ग में प्रवर्ताने को उपकारी हैं। उपकारी
का उपकार मानना न्याय है, उपकार लोपना अन्याय है।