इसमें दोष लगने पर अपनी निंदा गर्हादिक करना, गुरुओंका दिया हुाा प्रायश्चित लेना, शक्ति
के अनुसार तप करना, परिषह सहना, दसलक्षणधर्म में प्रवर्तना इत्यादि शुद्धात्मा के अनुकूल
क्रियारूप प्रर्वतना, इनमें कुछ रागका अंश रहता है तब तक शुभकर्म का बंध होता है, तो भी
वह प्रधान नहीं है, क्योंकि इनमें प्रर्वतनेवाले के शुभकर्म के फल की इच्छा नहीं है, इसलिये
अबंधतुल्य है,–––इत्यादि प्रवृत्ति आगमोक्त ‘व्यवहार–मोक्षमार्ग’ है। इसमें प्रवृत्तिरूप परिणाम
हैह तो भी निवृत्ति प्रधान है, इसलिये निश्चय–मोक्षमार्ग में विरोध नहीं है।
कारण नहीं है और सम्यग्दर्शनके व्यवहारमें जिनदेव की भक्ति प्रधान है, यह सम्यग्दर्शनको
बताने के लिये मुख्य चिन्ह है, इसलिये जिन भक्ति निरन्तर करना और जिन आज्ञा मानकर
आगमोक्त मार्गमें प्रवर्तना यह श्रीगुरुका उपदेश है। अन्य जिन–आज्ञा सिवाय सब कुमार्ग हैं,
उनका प्रसंग छोड़ना; इसप्रकार करने से आत्मकल्याण होता है।
व्यवहारनयसे कहा है ऐसा समझना चाहिये। निश्चय सम्यग्दर्शनादि है उसे ही व्य० मान्य है और उसे ही
निरतिचार व्यवहार रत्नत्रयादि में व्यवहार से ‘शुद्धत्व’ अथवा ‘शुद्ध संप्रयोगत्व’ का आरोप आता है
जिसको व्यवहार में ‘शुद्धभाव’ कहा है, उसी को निश्चय अपेक्षा अशुद्ध कहा है– विरुद्ध कहा है, किन्तु
व्यवहारनय से व्यवहार विरुद्ध नहीं है।