२७०] [अष्टपाहुड
जीव सदा चिदभाव एक अविनाशी धारै।
छप्पन
कर्म निमितकूं पाय अशुद्धभावनि विस्तारै।।
कर्म शुभाशुभ बांधि उदै भरमै संसारै।
पावै दुःख अनंत च्यारि गतिमें डुलि सारै।।
सर्वज्ञदेशना पायकै तजै भाव मिथ्यात्व जब।
निजशुद्धभाव धरि कर्महरि लहै मोक्ष भरमै न तब।।
दोहा
मंगलमय परमातमा, शुद्धभाव अविकार।
नमूं पाय पाऊं स्वपद, जाचूं यहै करार।। २।
इति श्री कुन्दकुन्दस्वामिविरचित भावप्राभृत की
जयपुर निवासी पं ० जयचन्द्रजी छाबड़ा कृत
देशभाषामय वचनिका समाप्त ।। ५।।