कहा। यहाँ ऐसा बताया है कि यह जीव ही जबतक बाह्य शरीरादिक को ही आत्मा जानता है
तब तक तो बहिरात्मा है, संसारी है, जब यही जीव अंतरंग में आत्मा को जानता है तब यह
सम्यग्दृष्टि होता है, तब अन्तरात्मा है और यह जीव जब परमात्मा के ध्यान से कर्मकलंक से
रहित होता है तब पहिले तो केवलज्ञान प्राप्त कर अरहंत होता है, पीछे सिद्धपद को प्राप्त
करता है, इन दोनों ही को परमात्मा कहते हैं। अरहंत तो भाव–कलंक रहित हैं और सिद्ध
द्रव्य–भावरूप दोनों ही प्रकार के कलंक से रहित हैं, इसप्रकार जानो।। ५।।
कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो।। ५।।
कर्मकलंक विमुक्तः परमात्मा भण्यते देवः।। ५।।
अर्थः––अक्ष अर्थात् स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ वह तो बाह्य आत्मा है, क्योंकि इन्द्रियों से
स्पर्श आदि विषयोंका ज्ञान होता है तब लोग कहते हैं––––ऐसे ही जो इन्द्रियाँ हैं वही
आत्मा है, इसप्रकार इन्द्रियों को बाह्य आत्मा कहते हैं। अंतरात्मा है वह अंतरंग में आत्माका
प्रकट अनुभवगोचर संकल्प है, शरीर और इन्द्रियों से भिन्न मन के द्वारा देखने जानने वाला
है वह मैं हूँ, इसप्रकार स्वसंवेदनगोचर संकल्प वही अन्तरात्मा है। तथा परमात्मा कर्म जो
द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक तथा भावकर्म जो राग–द्वेष–मोहादिक और नोकर्म जो शरीरादिक
कलंकमल उससे विमुक्त–रहित, अनंतज्ञानादिक गुण सहित वही परमात्मा, वही देव है,
अन्यदेव कहना उपचार है।