Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 6-7 (Moksha Pahud).

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मोक्षपाहुड][२७५
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मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा।
परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो।। ६।।
मलरहितः कलत्यक्तः अनिंद्रिय केवलः विशुद्धात्मा।
परमेष्ठी परमजिनः शिवंकरः शाश्वतः सिद्धः।। ६।।

अर्थः
––परमात्मा ऐसा है – मलरहित है – द्रव्यकर्म भावकर्मरूप मलसे रहित है,
कलत्यक्त
(– शरीर रहित) है अनिंद्रिय (– इन्द्रिय रहित) है, अथवा अनिंदित अर्थात् किसी
प्रकार निंदायुक्त नहीं है सब प्रकारसे प्रशंसा योग्य है, केवल (– केवलज्ञानमयी) है,
विशुद्धात्मा – जिसकी आत्माका स्वरूप विशेषरूपसे शुद्ध है, ज्ञानमें ज्ञेयोंके आकार झलकते हैं
तो भी उनरूप नहीं होता है, और न उनसे रागद्वेष है, परमेष्ठी है – परमपद में स्थित है,
परम जिन है –सब कर्मोंको जीत लिये हैं, शिवंकर है – भव्यजीवोंको परम मंगल तथा
मोक्षको करता है, शाश्वता
(– अविनाशी) है, सिद्ध है–––अपने स्वरूपकी सिद्धि करके
निर्वाणपदको प्राप्त हुआ है।

भावार्थः––ऐसा परमात्मा है, जो इसप्रकारके परमात्माका ध्यान करता है वह ऐसा ही
हो जाता है।। ६।।

आगे भी यही उपदेश करते हैंः–––
आरुहवि अन्तरप्पा बहिरप्पा छंडिउण तिविहेण।
झाइज्जइ परमप्पा उवइट्ठं जिणवरिंदेहिं।। ७।।
आरुह्य अंतरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन।
ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरैन्द्रैः।। ७।।

अर्थः
––बहिरात्मपन को मन वचन काय से छोड़कर अन्तरात्माका आश्रय लेकर
परमात्माका ध्यान करो, यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर परमदेव ने उपदेश दिया है।
ते छे विशुद्धात्मा, अनिन्द्रिय, मळरहित तनमुक्त छे,
परमेष्ठी, केवळ, परमजिन, शाश्वत, शिवंकर सिद्ध छे। ६।
थई अंतरात्मारूढ, बहिरात्मा तजीने त्रणविधे,
ध्यातव्य छे परमातमा–जिनवरवृषभ–उपदेश छे। ७।