Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 8-9 (Moksha Pahud).

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२७६] [अष्टपाहुड

भावार्थः––परमात्मा के ध्यान करने का उपदेश प्रधान करके कहा है, इसीसे मोक्ष पाते हैं।। ७।। आगे बहिरात्मा की प्रवृत्ति कहते हैंः–––

बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ।
णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मुढदिट्ठीओ।। ८।।
बहिरर्थे स्फुरितमनाः इन्द्रियद्वारेण निद्धस्वरूपच्युतः।
निजदेहं आत्मानं अध्यवस्यति मूढद्रष्टिस्तु।। ८।।

अर्थः
––मूढ़दृष्टि अज्ञानी मोही मिथ्यादृष्टि है वह बाह्य पदार्थ – धन, धान्य, कुटुम्ब
आदि इष्ट पदार्थों में स्फुरित
(– तत्पर) मनवाला है तथा इन्द्रियोंके द्वारा अपने स्वरूप से
च्युत है और इन्द्रियोंको ही आत्मा जानता है, ऐसा होता हुआ अपने देहको ही आत्मा जानता
है––निश्चय करता है, इसप्रकार मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है।

भावार्थः–––ऐसा बहिरात्माका भाव है उसको छोड़ना।। ८।।

आगे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि अपनी देहके समान दूसरोंकी देहको देखकर उसको दूसरे की आत्मा मानता हैः–––

णियदेहसरिच्छं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण।
अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परम भावेण।। ९।।
निजदेहसद्रशं द्रष्टवा परविग्रहं प्रयत्नेन।
अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परम भावेन।। ९।।

अर्थः
–––मिथ्यादृष्टि पु्रुष अपनी देहके समान दूसरे की देहको देख करके यह देह
अचेतन है तो भी मिथ्याभाव से आत्मभाव द्वारा बड़ा यत्न करके परकी आत्मा ध्ताया है अर्थात्
समझता है।
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१ – पाठान्तर – ‘चुओ’ के स्थान पर ‘चओ’ २– ‘सरिच्छं’ पाठान्तर ‘सरिसं’
बाह्यार्थ प्रत्ये स्फुरितमन, स्वभ्रष्ट इन्द्रियद्वारथी,
निज देह अध्यवसित करे आत्मापणे जीव मूढधी। ८।

निजदेह सम परदेह देखी मूढ त्यां उद्यम करे,
रते छे अचेतन तोय माने तेहने आत्मापणे। ९।