इय णाऊण सदव्वे कुणइ रई विरह इयरम्मि।। १६।।
इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन्।। १६।।
अर्थः––परद्रव्य से दुर्गति होती है और स्वद्रव्यसे सुगति होती है यह स्पष्ट
परद्रव्य उनसे विरति करो।
लेकर भोगता है उसको उसको दुःख होता है, आपत्ति उठानी पड़ती है। इसलिये आचार्य ने
संक्षेप में उपदेश दिया है कि अपने आत्मस्वभावमें रति करो इससे सुगति है, स्वर्गादिक भी
इसी से होते हैं और मोक्ष भी इसी से होता है और परद्रव्य से प्रीति मत करो इससे दुर्गति
होती है, संसार में भ्रमण होता है।
कहा है कि परद्रव्य से विरक्त होकर स्वद्रव्य में लीन होवे तब विशुद्धता बहुत होती है, उस
विशुद्धता के निमित्त से शुभकर्म भी बँधते हैं और जब अत्यंत विशुद्धता होती है तब कर्मों की
निर्जरा होकर मोक्ष होता है, इसलिये सुगति–दुर्गतिका होना कहा यह युक्त है, इसप्रकार
जानना चाहिये।। १६।।
तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं।। १७।।
–ए जाणी, निजद्रव्ये रमो, परद्रव्यथी विरमो तमे। १६।
आत्मस्वभावेतर सचित्त, अचित्त, तेमज मिजे,