२८२] [अष्टपाहुड
आत्मस्वभावादन्यत् सच्चित्ताचित्तमिश्रितं भवति।
तत् परद्रव्यं भणितं अवितत्थं सर्वदर्शिभिः।। १७।।
तत् परद्रव्यं भणितं अवितत्थं सर्वदर्शिभिः।। १७।।
अर्थः––आत्मस्वभावसे अन्य सचित्त तो स्त्री, पुत्रादिक जीव सहित वस्तु तथा अचित्त
धन, धान्य, हिरण्य सुवर्णादिक अचेतन वस्तु और मिश्र आभूषणादि सहित मनुष्य तथा कुटुम्ब
सहित गृहादिक ये सब परद्रव्य हैं, इसप्रकार जिसने जीवादिक पदार्थोंका स्वरूप नहीं जाना
उसको समझाने के लिये सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवानने कहा है अथवा ‘अवितत्थं’ अर्थात् सत्यार्थ
कहा है।
भावार्थः––अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय अन्य चेतन, अचेतन, मिश्र वस्तु हैं वे सब
ही परद्रव्य हैं, इसप्रकार अज्ञानी को समझानेके लिये सर्वज्ञ देवेने कहा है।। १७।।
आगे कहते हैं कि आत्मस्वभाव स्वद्रव्य काह वह इस प्रकार हैः–––
आगे कहते हैं कि आत्मस्वभाव स्वद्रव्य काह वह इस प्रकार हैः–––
दुट्ठट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं।
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं।। १८।।
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं।। १८।।
दुष्टाष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम्। शुद्धं जिनैः भणितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम्।। १८।।
अर्थः––संसार के दुःख देने वाले ज्ञानावरादिक दुष्ट अष्टकर्मों से रहित ओर जिसको किसी की उपमा नहीं ऐसा अनुपम, जिसको ज्ञान ही शरीर है और जिसका नाश नहीं है ऐसा अविनाशी नित्य है और शुद्ध अर्थात् विकार रहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान् सर्वज्ञ ने कहा है वह ही स्वद्रव्य है। भावार्थः––ज्ञानानन्दमय, अमूर्तिक, ज्ञानमूर्ति अपनी आत्मा है वही एक स्वद्रव्य है, अन्य सब चेतन, अचेतन, मिश्र परद्रव्य हैं।। १८।।
आगे कहते हैं कि जो ऐसे निजद्रव्यका ध्यान करते हैं वे निर्वाण पाते हैंः–––
जे झायंति सदव्यं परदव्व परम्मुहा दु सुचरिता।
ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिं णिव्याणं।। १९।।
ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिं णिव्याणं।। १९।।
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दुष्टाष्टकर्मविहीन, अनुपम, ज्ञानविग्रह, नित्य ने,
जे शुद्ध भाख्यो जिनवरे, ते आतमा स्वद्रअ छे। १८।
जे शुद्ध भाख्यो जिनवरे, ते आतमा स्वद्रअ छे। १८।
परविमुख थई निज द्रव्य जे ध्यावे सुचारित्रीपणे,
जिनदेवना मारग महीं रसंलग्न ते शिवपद लहे। १९।