की प्रधानता से होती है और पर की परीक्षा तो पर के अंतरंग में होने की परीक्षा, पर के
वचन, काय की क्रिया की परीक्षा से होती है यह व्यवहार है, परमार्थ सर्वज्ञ जानते हैं।
व्यवहारी जीवको सर्वज्ञने भी व्यवहार के ही शरण का उपदेश दिया है।
[नोंध–अनुभूति ज्ञानगुणकी पर्याय है वह श्रद्धागुण से भिन्न है, इसलिये ज्ञानके द्वारा श्रद्धानका
निर्णय करना व्यवहार है, उसका नाम व्यवहारी जीवको व्यवहार ही शरण अर्थात् आलम्बन
समझना।]
सर्वथा एकान्त से कहना तो मिथ्यादृष्टि है; सर्वथा ऐसा कहने से व्यवहार का लोप होगा, सर्व
मुनि–श्रावकोंकी प्रवृत्ति मिथ्यात्वरूप सिद्ध होगी, और सब अपने को मिथ्यादृष्टि मानेंगे तो
व्यवहार कहाँ रहेगा? इसलिये परीक्षा होने पश्चात् ऐसा श्रद्धान नहीं रखना नहीं चाहिये कि मैं
मिथ्यादृष्टि ही हूँ। मिथ्यादृष्टि तो अन्यमती को कहते हैं और उसी के समान स्वयं भी होगा,
इसलिये सर्वथा एकान्त पक्ष नहीं ग्रहण करना चाहिये। तथा तत्त्वार्थश्रद्धान तो बाह्य चिन्ह है।
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ऐसे सात तत्त्वार्थ हैं; उनमें पुण्य और पाप
को जोड़ देनेसे नव पदार्थ होते हैं। उनकी श्रद्धा अर्थात् सन्मुखता, रुचि अर्थात् तद्रुप भाव
करना तथा प्रतीति अर्थात् जैसे सर्वज्ञ ने कहे हैं तदनुसार ही अंगीकार करना और उनके
आचरण रूप क्रिया,–इसप्रकार श्रद्धानादिक होना सो सम्यक्त्वका बाह्य चिन्ह है।
चिन्ह जैसे कि––सर्वथा एकान्त तत्त्वार्थ का कथन करने वाले अन्य मतों का श्रद्धान, बाह्य वेश
में सत्यार्थपने का अभिमान करना, पर्यायों में एकान्त के कारण आत्मबुद्धि से अभिमान तथा
प्रीति करना वह अनंतानुबंधीका कार्य है– वह जिसके न हो , तथा किसी ने अपना बुरा किया
तो उसका घात करना आदि मिथ्यादृष्टि की भाँति विकार बुद्धि अपने को उत्पन्न न हो, तथा
वह ऐसा विचार करे कि मैंने अपने परिणामों