८][अष्टपाहुड
से कर्म बाँधे थे वे ही बुरा करने वाले हैं, अन्य तो निमित्तमात्र हैं,–ऐसी बुद्धि अपने को उत्पन्न
हो–ऐसे मंदकषाय हैं। तथा अनंतानुबंधी के बिना अन्य चारित्रमोह की प्रकृतियों के उदय से
आरम्भादिक क्रियामें हिंसादिक होते हैं उनको भी भला नहीं जानता इसलिये उससे प्रशम का
अभाव नहीं कहते।
(२) संवेगः––––धर्ममें और धर्मके फलमें परम उत्साह हो वह संवेग है। तथा
साधर्मियोंसे अनुराग और परमेष्ठियोंमें प्रीति वह भी संवेग ही है। इस धर्ममें तथा धर्मके फल में
अनुरागको अभिलाष नहीं करना चाहिये, क्योंकि अभिलाष तो उसे कहते हैं जिसे
इन्द्रियविषयोंकी चाह हो? अपने स्वरूपकी प्राप्तिमें अनुराग को अभिलाष नहीं कहते। तथा
(३) निर्वेदः––––इस संवेग ही में निर्वेद भी हुआ समझना, क्योंकि अपने स्वरूप रूप
धर्म की प्राप्ति में अनुराग हुआ तब अन्यत्र सभी अभिलाष का त्याग हुआ, सर्व परद्रव्योंसे
वैराग्य हुआ, वही निर्वेद है। तथा
(४) अनुकम्पाः––––सर्व प्राणियोंमें उपकार की बुद्धि और मैत्री भाव सो अनुकम्पा है।
तथा मध्यस्थ भाव होने से सम्यग्दृष्टि के शल्य नहीं हैं, किसी से वैरभाव नहीं होता, सुख–
दुःख, जीवन–मरण अपना परके द्वारा और परका अपने द्वारा नहीं मानता है। तथा पर में जो
अनुकम्पा है सो अपने में ही है, इसलिये परका बुरा करने का विचार करेगा तो अपने
कषायभाव से स्वयं अपना ही बुरा हुआ; पर का बुरा नहीं सोचेगा तब अपने कषाय भाव नहीं
होंगे इसलिये अपनी अनुकम्पा ही हुई।
(५) आस्तिक्यः––––जीवादि पदार्थों में अस्तित्वभाव सो आस्तिक्यभाव है। जीवादि
पदार्थोंका स्वरूप सर्वज्ञ के आगम से जानकर उसमें ऐसी बुद्धि हो कि–जैसे सर्वज्ञ ने कहे वैसे
ही यह हैं–अन्यथा नहीं हैं वह आस्तिक्य भाव है।
इसप्रकार यह सम्यक्त्च के बाह्य चिन्ह हैं।
सम्यक्त्वके आठ गुण हैंः––––संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वासतलय
और अनुकम्पा। यह सब प्रशमादि चार में ही आ जाते हैं संवेगमें निर्वेद, वातसल्य और
भक्ति–ये आ गये तथा प्रशममें निन्दा, गर्हा आ गई।