और प्रभावना।
पदार्थ हैं, तथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि अंतरित पदार्थ हैं; वे सर्वज्ञ के आगम में जैसे कहे हैं
वैसे है या नहीं हैं? अथवा सर्वज्ञदेव ने वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक कहा है सो सत्य है या
असत्य?–ऐसे सन्देह को शंका कहते हैं। तथा यह जो शंका होती है सो मिध्यात्वकर्मके उदय
से
सात भेद हैंः– इस लोक का भय, परलोकका भय, मृत्युका भय, अरक्षाका भय, अगुप्तिका
भय, वेदना का भय। अकस्मात् का भय। जिनके यह भय हों उसे मिथ्यात्वकर्म का उदय
समझना चाहिये; सम्यग्दृष्टि होने पर यह नहीं होते।
चारित्रमोह के भेदरूप भय प्रकृति के उदय से भय होता है तथापि उसे निर्भय ही कहते हैं,
क्योंकि उसके कर्मके उदयका स्वामित्व नहीं है और परद्रव्यके कारण अपने द्रव्य स्वभावका
नाश नहीं मानता। पर्याय का स्वभाव विनाशीक मानता है इसलिये भय होने पर भी उसे निर्भय
ही कहते हैं। भय होने पर उसका उपचार भागना इत्यादि करता है; वहाँ वर्तमान की पीड़ा
सहन न होने से वह इलाज
की प्राप्ति देखकर उन्हें अपने मन में भला जानना अथवा जो इन्द्रियोंको न रुचें ऐसे विषयों में
उद्वेग होना– यह भोगाभिलाष के चिन्ह हैं। यह भोगाभिलाष मिथ्यात्वकर्म के उदय से होता है,
और जिसके यह न हो वह निःकाक्षित अङ्गयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। वह सम्यग्दृष्टि यद्यपि
शुभक्रिया – व्रतादिक आचरण