स्वरूपका साधक जानकर उसका आचरण करता है, कर्मके फल की वांछा नहीं करता। –ऐसा
निःकांक्षित अङ्ग है ।।२।।
होता है। उसके चिन्ह ऐसे हैं कि –यदि कोई पुरुष पाप के उदय से दुःखी हो, असाता के
उदय से ग्लानियुक्त शरीर हो तो उसमें ग्लानिबुद्धि नहीं करता। ऐसी बुद्धि नहीं करता कि–
मैं सम्पदावान हूँ, सुन्दर शरीरवान हूँ, यह दीन रङ्क मेरी बराबरी नहीं कर सकता। उलटा
ऐसा विचार करता है कि– प्राणियों के कर्मोदय से अनेक विचित्र अवस्थाएँ होती हैं। जब मेरे
ऐसे कर्मका उदय आवे तब मैं भी ऐसा ही हो जाऊँ। ––ऐसे विचार से निर्विचिकित्सा अङ्ग
होता है ।।३।।
उत्पन्न नहीं कराते हैं तथा लौकिक रूढ़ि अनेक प्रकार की है, वह निःसार है, निःसार पुरुषों
द्वारा ही उसका आचरण होता है, जो अनिष्ट फल देनेवाली है तथा जो निष्फल है; जिसका
बुरा फल है तथा उसका कुछ हेतु नहीं है, कुछ अर्थ नहीं है; जो कुछ लोक रूढ़ि चल पड़ती
है उसे लोग अपना लेते हैं और फिर उसे छोड़ना कठिन हो जाता है –इत्यादि लोकरूढि है।
धर्म मानना, तथा मिथ्या आचारवान, शल्यवान, परिग्रहवान, सम्यक्त्व व्रत रहित को गुरु
मानना इत्यादि मूढ़दृष्टि के चिन्ह हैं। अब, देव–धर्म–गुरु कैसे होते हैं, उनका स्वरूप जानना
चाहिये, सो कहते हैंः––
सामान्यरूप से तो देव एक ही है और विशेषरूप से अरहंत, सिद्ध ऐसे दो भेद हैं; तथा इनके
नामभेदके भेदसे भेद करें तो हजारों नाम हैं। तथा गुण भेद किये जायें तो अनन्त गुण हैं।
परम औदारिक देह में विद्यमान घातिया कर्म रहित अनन्त चतुष्टय सहित धर्म का उपदेश
करने वाले ऐसे तो अरिहंत देव हैं तथा