Ashtprabhrut (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 11 of 394
PDF/HTML Page 35 of 418

 

background image
दर्शनपाहुड][११
पुद्गलमयी देह से लोक के शिखर पर विराजमान सम्यक्त्वादि अष्टगुण मंडित अष्ट कर्म रहित
ऐसे सिद्ध देव हैं। इनके अनेकों नाम हैंः–अरहंत, जिन, सिद्ध, परमात्मा, महादेव, शंकर,
विष्णु, ब्रह्मा, हरि, बुद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग परमात्मा इत्यादि अर्थ सहित अनेक नाम हैं;–ऐसा
देव का स्वरूप है।

गुरुका भी अर्थ से विचार करें तो अरिहंत देव ही हैं, क्योंकि मोक्षमार्ग का उपदेश
करनेवाले अरिहंत ही हैं, वे ही साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रवर्तन कराते हैं, तथा अरिहंत के पश्चात्
छद्मस्थ ज्ञान के धारक उन्ही का निर्ग्रन्थ रूप धारण करने वाले मुनि है सो गुरु हैं, क्योंकि
अरिहंत की सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की एकदेश शुद्धता उनके पायी जाती है और वे ही
संवर, निर्जरा, मोक्षका कारण हैं, इसलिये अरिहंत की भाँति एकदेश रूप से निर्दोष हैं वे मुनि
भी गुरु हैं, मोक्ष मागर का उपदेश करने वाले हैं।

ऐसा मुनिपना सामान्यरूप से एक प्रकार का है और विशेष रूप से वही तीन प्रकार का
है –आचार्य, उपाध्याय, साधु। इसप्रकार यह पदवी की विशेषता होने पर भी उनके मुनिपने
की क्रिया समान ही है; बाह्य लिंग भी समान है, पंव महाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति –ऐसे
तेरह प्रकार का चारित्र भी समान ही हैं, चर्या, स्थान, आसनादि भी समान हैं, मोक्षमागर की
साधना, सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र भी समान हैं। ध्याता, ध्यान, ध्येयपना भी समान है, ज्ञाता,
ज्ञान, ज्ञेयपना समान हैं, चार आराधना की आराधना, क्रोधादिक कषायोंका जीतना इत्यादि
मुनियों की प्रवृत्ति है वह सब समान है।

विशेष यह है कि –जो आचार्य हैं वे पंचाचार अन्य को ग्रहण कराते हैं तथा अन्य को
दोष लगे तो उसके प्रायश्चित्तकी विधि बतलाते हैं, धर्मोपदेश, दीक्षा, शिक्षा देते हैं; –ऐसे
आचार्य गुरु वंदना करने योग्य हैं।
जो उपाध्याय हैं वे वादित्व, वाग्मित्व, कवित्व, गमकत्व –इन चार विद्याओंमें प्रवीण
होते हैं; उसमें शास्त्र का अभ्यास प्रधान कारण है। जो स्वयं शास्त्र पढ़ते हैं और अन्य को
पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय गुरु वंदन करने योग्य हैं; उनके अन्य मुनिव्रत, मूलगुण, उत्तरगुण की
क्रिया आचार्य समान ही होती है। तथा साधु रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग की साधना करते हैं सो
साधु हैं; उनके दीक्षा, शिक्षा, उपदेशादि देने की प्रधानता नहीं है, वे तो अपने स्वरूप की
साधना में ही तत्पर होते हैं; जिनागम में जैसी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि की प्रवृत्ति कही है वैसी
प्रवृत्ति उनके होती है –ऐसे साधु वंदना के