करते हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं।
मूलसंघ नग्नदिगम्बर, अट्ठाईस मूलगुणोंके धारक, दयाके और शौचके उपकरण–मयूरपिच्छक,
कमण्डल धारण करने वाले, यथोक्त विधि आहार करने वाले गु्रु वंदन योग्य हैं, क्योंकि जब
तीर्थंकर देव दीक्षा लेते हैं तब ऐसा ही रूप धारण करते हैं अन्य भेष धारण नहीं करते; इसी
को जिनदर्शन कहते हैं।
सर्वदेशरूप निश्चय–व्यवहार द्वारा दो प्रकार कहा है; उसका मूल सम्यग्दर्शन है; उसके बिना
धर्म की उत्पत्ति नहीं होती। इसप्रकार देव–गुरु–धर्म तथा लोक में यथार्थ दृष्टि हो और मूढ़ता
न हो सो अमूढ़दृष्टि अङ्ग है ।।४।।
जानना चाहिये कि जिनमार्ग स्वयं सिद्ध है; उसमें बालकके तथा असमर्थ जन के आश्रय से जो
न्यूनता हो उसे अपनी बुद्धि से गुप्त कर दूर ही करे वह उपगूहन अङ्ग
है ।।५।।
पूर्वक पुनः श्रद्धान में दृढ़ करे, उसीप्रकार अन्य कोई धर्मात्मा धर्म से च्युत हो तो उसे
उपदेशादिक द्वारा स्थापित करे––––वह स्थितिकरण अङ्ग है ।।६।।
उपसर्गादि आयें उन्हें अपनी शक्ति अनुसार दूर करें, अपने शक्ति को न छिपायें; –यह सब
धर्म में अति प्रीति हो तब होता है ।।७।।