उद्योत करना वह प्रभावना अङ्ग है ।।८।।
सम्यक्–मिथ्याका विभाग कैसे होगा? समाधान–– जैसे सम्यक्त्वी के होते हैं वैसे मिथ्यात्वी
के तो कदापि नहीं होते, तथापि अपरीक्षक को समान दिखाई दें तो परीक्षा करके भेद जाना
जा सकता है। परीक्षा में अपना स्वानुभव प्रधान है। सर्वज्ञ के आगम में जैसा आत्मा का
अनुभव होना कहा है वैसा स्वयं को हो तो उसके होने से अपनी वचन–कायकी प्रवृत्ति भी
तदनुसार होती है। उस प्रवृत्ति के अनुसार अन्य की वचन–काय की प्रवृत्ति पहचानी जाती
है;– इसप्रकार परीक्षा करने से विभाग होते हैं। तथा यह व्यवहार मार्ग है, इसलिये व्यवहारी
छद्मस्थ जीवों के अपने ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति है; यर्थाथ सर्वज्ञ देव जानते हैं। व्यवहारी को
सर्वज्ञ देव ने व्यवहारी का आश्रय बतलाया है
सहित नग्न दिगम्बर मुद्रा उसकी मूर्ति है, उसे जिनदर्शन कहते हैं, इसप्रकार धर्मका मूल
सम्यग्दर्शन जानकर जो सम्यग्दर्शन रहित है उनके वंदन–पूजन निषेध किया है। –––ऐसा
यह उपदेश भव्य जीवोंको अंगीकार करने योग्य है ।।२।।
व्यवहार के आश्रय से वीतराग अंशरूप धर्म होगा ऐसा अर्थ कहीं पर नहीं समझना।