१४][अष्टपाहुड
सिज्झंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।। ३।।
सिध्यन्ति चारित्र भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति।। ३।।
अर्थः–––जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं; जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं परन्तु जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे सिद्धिको प्राप्त नहीं होते। भावार्थः–––जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं उन्हें भ्रष्ट कहते हैं; और जो श्रद्धा से भ्रष्ट नहीं हैं, किन्तु कदाचित् उदयसे चारित्रभ्रष्ट हुये हैं उन्हें भ्रष्ट नहीं कहते; क्योंकि जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; जो चारित्र से भ्रष्ट होते हैं और श्रद्धान दृढ़ रहते हैं उनके तो शीघ्र ही पुनः चारित्र का ग्रहण होता है, और मोक्ष होता है। तथा दर्शन–श्रद्धा से भ्रष्ट होय उसके फिर चारित्र का ग्रहण फिर कठिन होता है इसलिये निर्वाण की प्राप्ति दुर्लभ होती है। जैसे –वृक्ष की शाखा आदि कट जाये और जड़ बनी रहे तो शाखा आदि शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जाने पर शाखा आदि कैसे होंगे? उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन जानना ।।३।। अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रोंको अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसारमें भटकते हैं; ––ऐसे ज्ञानसे भी दर्शन को अधिक कहते हैंः–––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––