दर्शनपाहुड][१५
सम्मत्तरयण जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं।
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।। ४।।
सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टाः जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि।
आराधना विरहिताः भ्रमंति तत्रैव तत्रैव।। ४।।
अर्थः––जो पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्न से भ्रष्ट हैं तथा अनेक प्रकारोंके शास्त्रोंको जानते
हैं, तथापि वह आराधना से रहित होते हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं। दो बार कह कर
बहुत परिभ्रमण बतलाया है।
भावार्थः––जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छंद, अलंकार आदि
अनेक प्रकार के शास्त्रोंको जानते हैं तथापि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप आराधना उनके
नहीं होती; इसलिये कुमरणसे चतुगरतिरूप संसार में ही भ्रमण करते हैं –मोक्ष प्राप्त नहीं कर
पाते; इसलिये सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते।।४।।
अब कहते हैं कि––जो तप भी करते हैं ओर सम्यक्त्वरहित होते हैं उन्हें स्वरूप का
लाभ नहीं होताः––
सम्मत्तविरहिया णं सुट्ठु वि उग्गं तवं चरंता णं।
ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं।। ५।।
सम्यकत्वविरहिता णं सुष्ठु अपि उग्रं तपः चरंतो णं।
न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभिः।। ५।।
अर्थः––जो पुरुष सम्यक्त्वसे रहित हैं वे सुष्ठु अर्थात् भलीभाँति उग्र तपका आचरण
करते हैं तथापि वे बोधी अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमय जो अपना स्वरूप है उसका लाभ
प्राप्त नहीं करते; यदि हजार कोटी वर्ष तप करते रहें तब भी स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती।
यहाँ गाथामें दो स्थानोंपर ‘णं’ शब्द है वह प्राकृत में अव्यय है, उसका अर्थ वाक्यका अलंकार
है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सम्यक्त्वरत्नविहीन जाणे शास्त्र बहुविधने भले,
पण शून्य छे आराधनाथी तेथी त्यां ने त्यां भमे। ४।
सम्यक्त्व विण जीवो भले तप उग्र सुष्ठु आचरे,
पण लक्ष कोटि वर्षमांये बोधिलाभ नहीं लहे। ५।