छाया तवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरु भेयं।। २५।।
छाया तपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरु भेदः।। २५।।
अर्थः––व्रत और तपसे स्वर्ग होता है वह श्रेष्ठ है, परन्तु अव्रत और अतपसे प्राणी को
नरकगति में दुःख होता है वह मत होवे, श्रेष्ठ नहीं है। छाया और आतप में बैठने वाले के
प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है।
है वह दुखको प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है; इसप्रकार ही जो व्रत, तपका
आचरण करता है वह स्वर्गके सुखको प्राप्त करता है और जो इनका आचरण नहीं करता है,
विषय–कषायादिकका सेवन करता है वह नरक के दुःख को प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें
बड़ा भेद है। इसलिये यहाँ कहनेका यह आशय है कि जब तक निर्वाण न हो तब तक व्रत तप
आदिक में प्रवर्तना श्रेष्ठ है, इससे सांसारिक सुख की प्राप्ति है और निर्वाणके साधन में भी ये
सहकारी हैं। विषय–कषायादिक की प्रवृत्तिका फलतो केवल नरकादिकके दुःख हैं, उन दुःखोंके
कारणोंका सेवन करना यह तो बड़ी भूल है, इसप्रकार जानना चाहिये।। २५।।
छांये अने तडके प्रतीक्षाकरणमां बहु भेद छे। २५।
संसार–अर्णव रुद्रथी निःसरण ईच्छे जीव जे,