Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 25-26 (Moksha Pahud).

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२८६] [अष्टपाहुड
वर वय तवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं।
छाया तवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरु भेयं।। २५।।
वरं व्रततपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतु नरके इतरैः।
छाया तपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरु भेदः।। २५।।

अर्थः
––व्रत और तपसे स्वर्ग होता है वह श्रेष्ठ है, परन्तु अव्रत और अतपसे प्राणी को
नरकगति में दुःख होता है वह मत होवे, श्रेष्ठ नहीं है। छाया और आतप में बैठने वाले के
प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है।

भावार्थः––जैसे छायाका कारण तो वृक्षादिक हैं उनकी छायामें जो बैठे वह सुख पावे
और आतापका कारण सूर्य, अग्नि आदिक हैं इनके निमित्तसे आताप होता है, जो उसमें बैठता
है वह दुखको प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है; इसप्रकार ही जो व्रत, तपका
आचरण करता है वह स्वर्गके सुखको प्राप्त करता है और जो इनका आचरण नहीं करता है,
विषय–कषायादिकका सेवन करता है वह नरक के दुःख को प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें
बड़ा भेद है। इसलिये यहाँ कहनेका यह आशय है कि जब तक निर्वाण न हो तब तक व्रत तप
आदिक में प्रवर्तना श्रेष्ठ है, इससे सांसारिक सुख की प्राप्ति है और निर्वाणके साधन में भी ये
सहकारी हैं। विषय–कषायादिक की प्रवृत्तिका फलतो केवल नरकादिकके दुःख हैं, उन दुःखोंके
कारणोंका सेवन करना यह तो बड़ी भूल है, इसप्रकार जानना चाहिये।। २५।।

आगे कहते हैं कि संसार में रहे तबतक व्रत, तप पालना श्रेष्ठ कहा, परन्तु जो संसार
से निकलना चाहे वह आत्माका ध्यान करेः–––
जो इच्छइ णिस्सरिदुं संसार महण्णवाउ रुंद्दाओ
कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं।। २६।।
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१ – मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘संसारमहण्णवस्स रुद्दस्स’ ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत ‘संसारमहार्णवस्य रुद्रस्य’ ऐसी है।
दिव–ठीक व्रततपथी, न हो दुःख ईतरथी नरकादिके;
छांये अने तडके प्रतीक्षाकरणमां बहु भेद छे। २५।

संसार–अर्णव रुद्रथी निःसरण ईच्छे जीव जे,
ध्यावे करम–ईन्धन तणा दहनार निज शुद्धाद्नने। २६।