मोक्षपाहुड][२८५
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सग्गं तवेण सव्वो वि पावए तहिं वि झाणजोएण।
जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं।। २३।।
स्वर्गं तपसा सर्वः अपि प्राप्नोति किन्तु ध्यानयोगेन।
यः प्राप्नोति सः प्राप्नोति परलोके शाश्वतं सौख्यम्।। २३।।
अर्थः––शुभरागरूपी तप द्वारा स्वर्ग तो सब ही पाते हैं तथापि जो ध्यानके योगसे स्वर्ग
पाते हैं वे ही ध्यानके योगसे परलोक में शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं।
भावार्थः––कायक्लेशादिक तप तो सब ही मतके धारक करते हैं, वे तपस्वी
मंदकषायके निमित्त से सब ही स्वर्गको प्राप्त करते हैं , परन्तु जो ध्यान के द्वारा स्वर्ग प्राप्त
करते हैं वे जिनमार्ग में कहे हुए ध्यान के योगसे परलोक में जिसमें शाश्वत सुख है ऐसे
निर्वाण को प्राप्त करते हैं।। २३।।
आगे ध्यानके योग से मोक्षको प्राप्त करते हैं उसको दृष्टांत दार्ष्टांत द्वारा करते हैंः–––
अइसोहणजोएण सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य।
कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि।। २४।।
अतिशोभनयोगेन शुद्धं हेमं भवति यथा तथा च।
कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति।। २४।।
अर्थः––जैसे सुवर्ण–पाषाण सोधने की सामग्रीके संबंध से शुद्ध सुवर्ण हो जाता है वैसे
ही काल आदि लब्धि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप सामग्री की प्राप्ति से यह आत्मा
कर्मके संयोग से अशुद्ध है वही परमात्मा हो जाता है। भावार्थः–––सुगम है।।२४।।
आगे कहते है कि संसार में व्रत, तपसे स्वर्ग होता है वह व्रत तप भला है परन्तु
अव्रतादिक से नरकादिक गति होती है वह अव्रतादिक श्रेष्ठ नहीं हैः–––
तपथी लहे सुरलोक सौ, पण ध्यानयोगे जे लहे
ते आतमा परलोकमां पामे सुशाश्वत सौख्यने। २३।
ज्यम शुद्धता पामे सुवर्ण अतीव शोभन योगथी,
आत्मा बने परमातमा त्यम काळ–आदिक लब्धिथी। २४।