मान करे, किसी कार्य निमित्त कपट करे, आहारादिकमें लोभ करे। यह गारव है वह रस,
ऋद्धि और सात––ऐसे तीन प्रकारका है ये यद्यपि मानकषायमें गर्भित हैं तो भी प्रमादकी
बहुलता इनमें है इसलिये भिन्नरूपसे कहे हैं।
लक्षणके भेदसे भेद करके कहा। मोह नाम परसे ममत्वभावका है, संसारका ममत्व तो मुनिके है
ही नहीं परन्तु धर्मानुरागसे शिष्य आदि में ममत्व का व्यवहार है वह भी छोड़े। इसप्रकार भेद–
विवक्षा से भिन्न भिन्न कहे हैं, ये ध्यान के घातक भाव हैं, इनको छोड़े बिना ध्यान होता नहीं
है इसलिये जैसे ध्यान हो वैसे करे।।२७।।
मोणव्वएण जोइ जोयत्थो जोयए अप्पा।। २८।।
मौनव्रतेन योगी योगस्थः द्योतयति आत्मानम्।। २८।।
अर्थः––योगी ध्यानी मुनि है वह मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप–पुण्य इनको मन–वचन–काय
से छोड़कर मौनव्रतके द्वारा ध्यानमें स्थित होकर आत्माका ध्यान करता है।
––मिथ्यात्व और अज्ञान को छोड़कर आत्माके स्वरूपको यथार्थ जानकर सम्यक् श्रद्धान तो
जिसने नहीं किया उसके मिथ्यात्व–अज्ञान तो लगा रहा तब ध्यान किसका हो तथा पुण्य–पाप
दोनों बंधस्वरूप हैं इनमें प्रीति–अप्रीति रहती है, जब तक मोक्षका स्वरूप भी जाना नहीं है
तब ध्यान किसका हो और [सम्यक् प्रकार स्वरूपगुप्त स्वअस्तिमें ठहरकर] मन वचनकी
प्रवृत्ति छोड़कर मौन न करे तो एकाग्रता कैसे हो?