मोक्षपाहुड][२८९
ने जाणनार न दश्यमान; हुं बोलुं कोनी साथमां? २९।
इसलिये मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य, पाप, मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति छोड़ना ही ध्यान में युक्त
कहा है; इसप्रकार आत्माका ध्यान करनेसे मोक्ष होता है।। २८।।
आगे ध्यान करनेवाला मौन धारण करके रहता है वह क्या विचारकर रहता है, यह
कहते हैंः–––
जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे १णेव तम्हा झंपेमि केणहं।। २९।।
यत् मया द्रश्यते रूपं तत् न जानाति सर्वथा।
ज्ञायकं द्रश्यते न तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम्।। २९।।
अर्थः––जिसरूप को मैं देखता हूँ वह रूप मूर्तिक वस्तु है, जड़ है, अचेतन है, सब
प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है और मैं ज्ञायक हूँ, अमूर्तिक हूँ। यह तो जड़ अचेतन है सब
प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है, इसलिये मैं किससे बोलूँ?
भावार्थः––यदि दूसरा कोई परस्पर बात करने वाला हो तब परस्पर बोलना संभव है,
किन्तु आत्मा तो अमूर्तिक है उसको वचन बोलना नहीं है और जो रूपी पुद्गल है वह अचेतन
है, किसी को जानता नहीं देखता नहीं। इसलिये ध्यान केनेवाला कहता है कि––मैं किससे
बोलूँ? इसलिये मेरे मौन है।। २६।।
आगे कहते हैं कि इसप्रकार ध्यान करनेसे सब कर्मोंके आस्रवका निरोध करके संचित
कर्मोंका नाश करता हैंः–––
सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं।
जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं।। ३०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः– णं तं, णंत।
देखाय मुजने रूप जे ते जाणतुं नहि सर्वथा,
आस्रव समस्त निरोधीने क्षय पूर्वकर्म तणो करे,
ज्ञाता ज बस रही जाय छे योगस्थ योगी;–जिन कहे। ३०।