झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं।। ३२।।
ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः।। ३२।।
अर्थः––इसप्रकार पूर्वोक्त कथनको जानकर योगी ध्यानी मुनि है वह सर्व व्यवहारको
सब प्रकार ही छोड़ देता है और परमात्माका ध्यान करता है––जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थंकर
सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसे ही परमात्माका ध्यान करता है।
है वैसे ही परमात्माका ध्यान करना। अन्यमती परमात्माका स्वरूप अनेक प्रकारसे अन्यथा कहते
हैं उसके ध्यानका भी वे अन्यथा उपदेश करते हैं उसका निषेध किया है। जिनदेवने
परमात्माका तथा ध्यानका भी स्वरूप कहा वह सत्यार्थ है, प्रमाणभूत है वैसे ही जो योगीश्वर
करते हैं वे ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं।। ३२।।
रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह।। ३३।।
रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु।। ३३।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जो पाँच महाव्रत युक्त हो गया तथा पाँच समिति व तीन
गुप्तियोंसे युक्त हो गया और सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपी रत्नत्रयसे संयुक्तहो गया, ऐसे
बनकर हे मुनिराजों! तुम ध्यान और अध्ययन–शास्त्रके अभ्यासको सदा करो।
परमात्मने ध्यावे यथा उपदिष्ट जिनदेवो वडे। ३२।
तुं पंचसमित त्रिगुप्त ने संयुक्त पंचमहाव्रते,