२९२] [अष्टपाहुड
भावार्थः––अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग, ये पाँच महाव्रत, ईर्या, भाषा,
एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना ये पाँच समिति और मन, वचन, कायके निग्रहरूप तीन
गुप्ति–––यह तेरह प्रकारका चारित्र जिनदेव ने कहा है उससे युक्त हो और निश्चय–
व्यवहाररूप, मन्यगदर्शन–ज्ञान–चारित्र कहा है, इनसे युक्त होकर ध्यान और अध्ययन
करनेका उपदेश है। इनमें प्रधान तो ध्यान ही है और यदि इसमें मन न रुके तो शास्त्र
अभ्यासमें मनको लगावे यह भी ध्यानतुल्य ही है, क्योंकि शास्त्रमें परमात्माके स्वरूपका निर्णय
है सो यह ध्यानका ही अंग है।। ३३।।
आगे कहते हैं कि जो रत्नत्रय की आराधना करता है वह जीव आराधक ही हैः–
रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्वो।
आराहणाविहणं तस्स फलं केवलं णाणं।। ३४।।
रत्नत्रयमाराधयन् जीवः आराधकः ज्ञातव्यः।
आराधनाविधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम्।। ३४।।
अर्थः––रत्नत्रय समयग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी आराधना करते हुए जीवको आराधक
जानना और आराधनाके विधानका फल केवलज्ञान है।
भावार्थः––जो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी आराधना करता है वह केवलज्ञानको प्राप्त
करता है वह जिनमार्ग में प्रसिद्ध है।। ३४।।
आगे कहते हैं कि शुद्धात्मा है वह केवलज्ञान है और केवलज्ञान है वह शुद्धात्मा हैः––
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सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य।
सो जिणवरेहिं भणिओ जाण तुमं केवलं णाणं।। ३५।।
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रत्नत्रयी आराधनारो जीव आराधक कह्यो;
आराधनानुं विधान केवलज्ञानफळदायक अहो! ३४।
छे सिद्ध, आत्मा शुद्ध छे सर्वज्ञानीदर्शी छे,
तुं जाण रे! –जिनवरकथित आ जीव केवळज्ञान छे। ३५।