मोक्षपाहुड][२९५
दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं।
दंसणविहीणपुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं।। ३९।।
दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम्।
दर्शनविहीन पुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम्।। ३९।।
अर्थः––जो पुरुष दर्शनसे शुद्ध है वह ही शुद्ध है, क्योकि जिसका दर्शन शुद्ध है वही
निर्वाण को पाता है और जो पुरुष सम्यग्दर्शन से रहित है वह पुरुष ईप्सित लाभ अर्थात्
मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता है।
भावार्थः––लोकमें प्रसिद्ध है कि कोई पुरुष कोई वस्तु चाहे और उसकी रुचि प्रातीति
श्रद्धा न हो तो उसकी प्राप्ति नहीं होती है, इसलिये सम्यग्दर्शन ही निर्वाणकी प्राप्ति में प्रधान
है।। ३९।।
आगे कहते हैं कि ऐसा सम्यग्दर्शनको ग्रहण करने का उपदेश सार है, उसको जो
मानता है वह सम्यक्त्व हैः––
इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु।
तं सम्मत्तं भणियं सवणाणं सावयाणं पि।। ४०।।
इति उपदेशं सारं जरा मरण हरं स्फुटं मन्यते यत्तु।
तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि।। ४०।।
अर्थः––इसप्रकार सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्रका उपदेश सार है, जो जरा व मरण
को हरनेवाला है, इसको जो मानता है श्रद्धान करता है वह ही सम्यक्त्व कहा है। वह मुनियों
तथा श्रावकोंको सभी को कहा है इसलिये सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान चारित्र को अंगीकार करो।
भावार्थः––जीवके जितने भाव हैं उनमें समयग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र सार हैं उत्तम
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द्रगशुद्ध आत्मा शुद्ध छे, द्रगशुद्ध ते मुक्ति लहे,
दर्शनरहित जे पुरुष ते पामे न इच्छित लाभने। ३९।
जरमरणहर आ सारभूत उपदेश श्रद्धे स्पष्ट जे,
सम्यक्त्व भाख्युं तेहने, हो श्रमण के श्रावक भले। ४०।