सम्यग्ज्ञान है ऐसा सर्वदर्शी – सबको देखनेवाले सर्वज्ञ देव ने कहा है अतः वह ही सत्यार्थ है,
अन्य छद्मस्थका कहा हुआ सत्यार्थ नहीं है असत्यार्थ है, सर्वज्ञका कहा हुआ ही सत्यार्थ है।
मिथ्या कहलाते हैं, इसलिये सम्यग्दर्शन प्रधान जानकर पहिले अंगीकार करना, यह उपदेश
मुनि तथा श्रावक सभीको है।। ४०।।
तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं।। ४१।।
तत् संज्ञानं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः।। ४१।।
ज्ञानमयी चेतनास्वरूप कहा है, यह सदा अमूर्तिक है अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्णसे रहित है।
पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंको अजीव कहे हैं ये अचेतन हैं – जड़ हैं। इनमें पुद्गल स्पर्श, रस,
गंध, वर्ण, शब्दसहित मूर्तिक
इन्द्रियगोचर पुद्गल स्कंध हैं उनको ग्रहण करके जीव राग–द्वेष–मोहरूपी परिणमन करता है
शरीरादिको अपना मानता है तथा इष्ट–अनिष्ट मानकर राग–द्वेषरूप होता है, इससे नवीन
पुद्गल कर्मरूप होकर बंधको प्राप्त होता है, यह निमित्त–नैमित्तिक भाव है, इसप्रकार यह
जीव अज्ञानी होता हुआ जीव–पुद्गलके भेदको न जानकर मिथ्याज्ञानी होता है। इसलिये
आचार्य कहते हैं कि जिनदेवके मत से जीव–अजीवका भेद जानकर सम्यग्दर्शन का स्वरूप
जानना। इसप्रकार जिनदेवने कहा वह ही सत्यार्थ है, प्रमाण–नयके द्वारा ऐसे ही सिद्ध होता
है इसलिये जिनदेव सर्वज्ञने सब वस्तुको प्रत्यक्ष देखकर कहा है।