मायारूप अवस्तु है ऐसा मानते हैं। कई नैयायिक, वैशेषिक जीव को सर्वथा नित्य सर्वगत
कहते हैं, जीवके और ज्ञानगुण के सर्वथा भेद मानते हैं और अन्य कार्यमात्र है उनको ईश्वर
करात है इसप्रकार मानते हैं। कई सांख्यमती पुरुषको उदासीन चैतन्यरूप मानकर सर्वथा
अकर्ता मानते हैं ज्ञानको प्रधान का धर्म मानते हैं।
हैं। मीमांसक कर्मकांडमात्र ही तत्त्व मानते हैं, जीवको अणुमात्र मानते हैं तो भी कुछ परमार्थ
नित्य वस्तु नहीं है––इत्यादि मानते हैं, पंचभूतों से जीवकी उत्पत्ति मानते हैं।
इसलिये जिनदेव सर्वज्ञने ही वस्तुका पूर्णरूप देखा है वही कहा है। यह प्रमाण और नयोंके
द्वारा अनेकान्तरूप सिद्ध होता है। इनकी चर्चा हेतुवाद के जैनके न्याय–शस्त्रोंसे जानी जाती
है, इसलिये यह उपदेश है––जिनमतमें जीवाजीवका स्वरूप सत्यार्थ कहा है उसको जानना
सम्यग्ज्ञान है, इसप्रकार जानकर जिनदेवकी आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञानको अंगीकार करना,
इसीसे सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होती है, ऐसे जानना।। ४१।।
तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं।। ४२।।
तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितैः।। ४२।।
अर्थः––योगी ध्यानी मुनि उस पूर्वोक्त जीवाजीवके भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञानको