२९८] [अष्टपाहुड जानकर पुण्य तथा पाप इन दोनोंका परिहार करता है, त्याग करता है वह चारित्र है, जो निर्विकल्प है अर्थात् प्रवृत्तिरूपक्रियाके विकल्पोंसे रहित है वह चारित्र घातिकर्मसे रहित ऐसे सर्वज्ञदेवने कहा है।
भावार्थः–––चारित्र निश्चय–व्यवहारके भेदसे दो भेदरूप है, महाव्रत–समिति–गुप्ति के भेदसे कहा है वह व्यवहार है। इसमें प्रवृत्तिरूप क्रिया शुभकर्मरूप बंध करती है और इन क्रियाओं में जितने अंश निवृत्ति है [अर्थात् उसीसमय स्वाश्रयरूप आंशिक निश्चय वीतराग भाव है] उसका फल बंध नहीं है, उसका फल कर्म की एकदेश निर्जरा है। सब कर्मोंसे रहित अपने आत्मस्वरूपमें लीन होना वह निश्चयचारित्र है, इसका फल कर्मका नाश ही है, यह पुण्य– पापके परिहाररूप निर्विकल्प है। पापका तो त्याग मुनिके है ही और पुण्य का त्याग इसप्रकार है––– शुभक्रिया का फल पुण्यकर्मका बंध है उसकी वांछा नहीं है, बंधके नाश का उपाय निर्विकल्प निश्चयचारित्र का प्रधान उद्यम है। इसप्रकार यहाँ निर्विकल्प अर्थात् पुण्य–पापसे रहित ऐसा निश्चयचार्रित्र कहा है। चौदहवें गुणस्थानके अंतसमयमें पूर्ण चारित्र होता है, उससे लगता ही मोक्ष होता है ऐसा सिद्धांत है।। ४२।। आगे कहते हैं कि इसप्रकार रत्नत्रयसहित होकर तप संयम समितिको पालते हुए शुद्धात्माका ध्यान करने वाला मुनि निर्वाणको प्राप्त करता हैः–––
सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं।। ४३।।
सः प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम्।। ४३।।
अर्थः––जो मुनि रत्नत्रयसंयुक्त होता हुआ संयमी बनकर अपनी शक्तिके अनुसार तप
करता है वह शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद निवार्णको प्राप्त करता है।
भावार्थः––जो मुनि संयमी पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति यह तेरह प्रकारका
निश्चयचारित्र युक्त होकर अपनी शक्तिके अनुसार उपवास,