करके ध्यान करता हुआ निर्वाणको प्राप्त करता है।। ४३।।
[नोंध–––जो छठवें गुणस्थानके योग्य स्वाश्रयरूप निश्चयरत्नत्रय सहित है उसीके व्यवहार
संयम–व्रतादिक को व्यवहारचारित्र माना है।]
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।। ४४।।
द्वि दोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी।। ४४।।
अर्थः––‘त्रिभिः’ मन वचन कायसे, ‘त्रीन्’ वर्षा, शीत, उष्ण तीन कालयोगों को धारण
कर,‘त्रिकरहित’ माया, मिथ्या, निदान तीन शल्योंसे रहित होकर,‘त्रिकेण परिकरितः’ दर्शन,
ज्ञान, चारित्र से मंडित होकर और ‘द्विदोषविप्रमुक्तः’ दो दोष अर्थात् राग–द्वेष इनसे रहित
होता हुआ योगी ध्यानी मुनि है, वह परमात्मा अर्थात् सर्वकर्म रहित शुद्ध परमात्मा उनका ध्यान
करता है।
जाये तब ध्यान की सिद्धि कैसी? कोई प्रकार का चित्त में शल्य रहने से चित्त एकाग्र नहीं
होता तब ध्यान कैसे हो? इसलिये शल्य रहित कहा; श्रद्धान, ज्ञान आचरण यथार्थ न हो तब
ध्यान कैसे हो? इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र मंडित कहा और राग–द्वेष, इष्ट–अनिष्ट बद्धि
रहे तब ध्यान कैसे हो? इसलिये परमात्मा का ध्यान करे वह ऐसा होकर करे, यह तात्पर्य
है।। ४४।।