मोक्षपाहुड][२९९ कायक्लेशादि बाह्य तप करता है वह मुनि अंतरंग तप ध्यानके द्वारा शुद्ध आत्माका एकाग्र चित्त करके ध्यान करता हुआ निर्वाणको प्राप्त करता है।। ४३।। [नोंध–––जो छठवें गुणस्थानके योग्य स्वाश्रयरूप निश्चयरत्नत्रय सहित है उसीके व्यवहार संयम–व्रतादिक को व्यवहारचारित्र माना है।] आगे कहते हैं कि ध्यानी मुनि ऐसा बनकर परमात्माका ध्यान करता हैः–––
तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परिरयरिओ।
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।। ४४।।
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।। ४४।।
त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिरकरितः।
द्वि दोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी।। ४४।।
द्वि दोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी।। ४४।।
अर्थः––‘त्रिभिः’ मन वचन कायसे, ‘त्रीन्’ वर्षा, शीत, उष्ण तीन कालयोगों को धारण
कर,‘त्रिकरहित’ माया, मिथ्या, निदान तीन शल्योंसे रहित होकर,‘त्रिकेण परिकरितः’ दर्शन,
ज्ञान, चारित्र से मंडित होकर और ‘द्विदोषविप्रमुक्तः’ दो दोष अर्थात् राग–द्वेष इनसे रहित
होता हुआ योगी ध्यानी मुनि है, वह परमात्मा अर्थात् सर्वकर्म रहित शुद्ध परमात्मा उनका ध्यान
करता है।
भावार्थः––मन वचन काय से तीन कालयोग धारणकर परमात्माका ध्यान कर इसप्रकार
कष्ट में दृढ़ रहे तब ज्ञात होता है कि इसके ध्यान की सिद्धि है, कष्ट आने पर चलायमान हो
जाये तब ध्यान की सिद्धि कैसी? कोई प्रकार का चित्त में शल्य रहने से चित्त एकाग्र नहीं
होता तब ध्यान कैसे हो? इसलिये शल्य रहित कहा; श्रद्धान, ज्ञान आचरण यथार्थ न हो तब
ध्यान कैसे हो? इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र मंडित कहा और राग–द्वेष, इष्ट–अनिष्ट बद्धि
रहे तब ध्यान कैसे हो? इसलिये परमात्मा का ध्यान करे वह ऐसा होकर करे, यह तात्पर्य
है।। ४४।।
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार होता है वह उत्तम सुखको पाता हैः–––
जाये तब ध्यान की सिद्धि कैसी? कोई प्रकार का चित्त में शल्य रहने से चित्त एकाग्र नहीं
होता तब ध्यान कैसे हो? इसलिये शल्य रहित कहा; श्रद्धान, ज्ञान आचरण यथार्थ न हो तब
ध्यान कैसे हो? इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र मंडित कहा और राग–द्वेष, इष्ट–अनिष्ट बद्धि
रहे तब ध्यान कैसे हो? इसलिये परमात्मा का ध्यान करे वह ऐसा होकर करे, यह तात्पर्य
है।। ४४।।
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार होता है वह उत्तम सुखको पाता हैः–––
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त्रणथी धरी त्रण, नित्य त्रिकविरहितपणे त्रिकयुतपणे,
रही दोषयुगल विमुक्त ध्यावे योगी निज परमात्मने। ४४।