णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं।। ४५।।
निर्मलस्वभावयुक्तः सः प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम्।। ४५।।
अर्थः––जो जीव मद, माया, क्रोध इनसे रहित हो और लोभसे विशेषरूपसे रहित हो
वह जीव निर्मल विशुद्ध स्वभावयुक्त होकर उत्तम सुखको प्राप्त करता है।
आकुलतायुक्त होकर निरन्तर दुःखी रहता है। अतः यही रीति मोक्षमार्ग में भी जानो–जो क्रोध,
मान, माया, लोभ चार कषायोंसे रहित होता है तब निर्मल भाव होते हैं और तब ही
यथाख्यातचारित्र पाकर उत्तम सुखको प्राप्त करता है।। ४५।।
सकताः–––
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो।। ४६।।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखः जीवः।। ४६।।
अर्थः––जो जीव विषय–कषायपंसे युक्त है, रौद्रपरिणामी है, हिंसादिक विषय–
कषायदिक पापों में हर्ष सहित प्रवृत्ति करता है और जिसका चित्त परमात्माकी भावना से रहित
है, ऐसा जीव जिनमुद्रा से पराङमुख है वह ऐसे सिद्धिसुखको मोक्षके सुखको प्राप्त नहीं कर
सकता।
निर्मळ स्वभावे परिणमे, ते सौख्य उत्तमने लहे। ४५।
परमात्मभावनहीन रूद्र, कषायविषये युक्त जे,