णादियदि णवं कम्मं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं।। ४८।।
नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः।। ४८।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी परमात्मा का ध्यान करता हुआ रहता है वह मल देने वाले
लोभ कषाय से छूटता है, उसके लोभ मल नहीं लगता है इसी से नवीन कर्म का आस्रव
उसके नहीं होता है, यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है।
संबंधी कुछ भी लोभ नहीं होता, इसलिये उसके नवीन कर्मका आस्रव नहीं होता ऐसा
जिनदेवने कहा है। यह लोभ कषाय ऐसा ही की दसवें गुणस्थान तक पहुँच जाने पर भी
अव्यक्त होकर आत्मा को मल लगाता है, इसलिये इसको काटना ही युक्त है, अथवा जब
तक मोक्षकी चाहरूप लोभ रहता है तब तक मोक्ष नहीं होता है, इसलिये लोभ का अत्यंत
निषेध है।। ४८।।
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई।। ४९।।
नूतन करम नहि आस्रवे–जिनदेवथी निर्दिष्ट छे। ४८।
परिणत सुद्रढ–सम्यक्त्वरूप, लही सुद्रढ–चारित्रने,