मोक्षपाहुड][३०३
भूत्वा द्रढचरित्रः द्रढसम्यक्त्वेन भावितमतिः।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी।। ४९।।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी।। ४९।।
अर्थः––पूर्वोक्त प्रकार जिसकी मति दृढ़ सम्यक्त्वसे भावित है ऐसा योगी ध्यानी मुनि
दृढ़चारित्रवान होकर आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद अर्थात् परमात्मपद को प्राप्त करता
है।
भावार्थः––सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप दृढ़ होकर परिषह आने पर भी चलायमान न
हो, इसप्रकार से आत्मा का ध्यान करता है वह परम पद को प्राप्त करता है ऐसा तात्पर्य है।।
४९।।
आगे दर्शन, ज्ञान, चारित्र से निर्वाण होता है – ऐसा कहते आये वह दर्शन, ज्ञान तो
४९।।
आगे दर्शन, ज्ञान, चारित्र से निर्वाण होता है – ऐसा कहते आये वह दर्शन, ज्ञान तो
जीव का स्वरूप है, ऐसा जाना, परन्तु चारित्र क्या है? ऐसी आशंका उत्तर कहते हैंः–––
चरणं हवइ सधम्मो धम्मे सो हवइ अप्पसमभावो।
सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्ण परिणामो।। ५०।।
सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्ण परिणामो।। ५०।।
चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः सः भवति आत्मसमभावः।
सः रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः।। ५०।।
सः रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः।। ५०।।
अर्थः––स्वधर्म अर्थात् आत्मा का धर्म है वह चरण अर्थात् चारित्र है। धर्म है वह आत्म
समभाव है सब जीवों में समान भाव है। जो अपना धर्म है वही सब जीवों में है अथवा सब
जीवों को अपने समान मानना है और जो आत्म स्वभाव से ही [स्वाश्रयके द्वारा] रागद्वेष
रहित है, किसी से इष्ट–अनिष्ट बुद्धि नहीं है ऐसा चारित्र है, वह जैसे जीवके दर्शन – ज्ञान
हैं वैसे ही अनन्य परिणाम हैं, जीव का ही स्वभाव है।
भावार्थः––चारित्र है वह ज्ञान में राग–द्वेष रहित निराकुलता रूप स्थिरता भाव है, वह
जीव का ही अभेदरूप परिणाम है, कुछ अन्य वस्तु नहीं है।। ५०।।
आगे जीव के परिणाम की स्वच्छता को दृष्टांत पूर्वक दिखाते हैंः–––
आगे जीव के परिणाम की स्वच्छता को दृष्टांत पूर्वक दिखाते हैंः–––
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चारित्र ते निज धर्म छे ने धर्म निज समभाव छे,
ते जीवना वण राग रोष अनन्यमय परिणाम छे। ५०।