Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 53 (Moksha Pahud).

< Previous Page   Next Page >


Page 305 of 394
PDF/HTML Page 329 of 418

 

background image
मोक्षपाहुड][३०५
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि सम्यक्त्व को धारण करता है किन्तु जब तक यथाख्यात
चारित्र को प्राप्त नहीं होता है तब तक अरहंत–सिद्ध देवमें, और शिक्षा–दीक्षा देनेवाले गुरु में
तो भक्ति युक्त होता ही है, इनकी भक्ति विनय सहित होती है और अन्य संयमी मुनि अपने
समान धर्म सहित हैं उनमें भी अनुरक्त हैं, अनुराग सहित होता है वही मुनि ध्यान में प्रतिवान्
होता है और जो मुनि होकर भी देव–गुरु–साधर्मियों में भक्ति व अनुराग सहित न हो उसको
ध्यान में रुचिवान नहीं कहते हैं क्योंकि ध्यान होने वाले के, ध्यानवाले से रुचि, प्रीति होती है,
ध्यानवाले न रुचें तब ज्ञात होता है कि इसको ध्यान भी नहीं रुचता है, इसप्रकार जानना
चाहिये।। ५२।।

आगे कहते हैं कि जो ध्यान सम्यग्ज्ञानी के होता है वही तप करके कर्म का क्षय करता
हैः–––
उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहिं।
तं णाणी तिहि गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण।। ५३।।
उग्रतपसाऽज्ञानी यत् कर्म क्षपयति भवैर्बहुकैः।
तज्ज्ञानी त्रिभिः गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्त्तेन।। ५३।।

अर्थः
––अज्ञानी तीव्र तपके द्वारा बहुत भवोंमें जितने कर्मोंका क्षय करता है उतने
कर्मोंका ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित होकर अंतर्मुहूर्त में ही क्षय कर देता है।

भावार्थः––जो ज्ञान का सामर्थ्य है वह तएव्र तपका भी सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि ऐसा
है कि––अज्ञानी अनेक कष्टोंको सहकर तीव्र तपको करता हुआ करोड़ों भवों में जितने
कर्मोंका क्षय करता है वह आत्मभावना सहित ज्ञानी मुनि उतने कर्मोंका अंतमुहूर्त में क्षय कर
देता है, यह ज्ञान का सामर्थ्य है।। ५३।।

आगे कहते हैं कि जो इष्ट वस्तुके संबंध से परद्रव्य में रागद्वेष करता है वह उस भावमें
अज्ञानी होता है, ज्ञानी इससे उल्टा हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तप उग्रथी अज्ञानी जे कर्मो खपावे बहु भवे,
ज्ञानी जे त्रिगुप्तिक ते करम अंतर्मुहूर्ते क्षय करे। ५३।