३०६] [अष्टपाहुड
सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहु।
सो तेण दु अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीओ।। ५४।।
सो तेण दु अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीओ।। ५४।।
शुभ योगेन सुभावं परद्रव्ये करोति रागतः साधुः।
सःतेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः।। ५४।।
सःतेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः।। ५४।।
अर्थः––शुभ योग अर्थात् अपने इष्ट वस्तु के संबंध से परद्रव्य में सुभाव अर्थात्
प्रीतिभाव को करता है वह प्रगट राग–द्वेष है, इष्टमें राग हुआ तब अनिष्ट वस्तुमें द्वेषभाव
होता ही है, इसप्रकार जो राग–द्वेष करता है वह उस कारण से रागी–द्वेषी–अज्ञानी है और
जो इससे विपरीत अर्थात् उलटा है परद्रव्यमें राग–द्वेष नहीं करता है वह ज्ञानी है।
भावार्थः––ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मुनिके परद्रव्यमें रागद्वेष नहीं है क्योंकि राग उसको कहते
हैं कि––जो परद्रव्य को सर्वथा इष्ट मानकर राग करता है वैसे ही अनिष्टमानकर द्वेष करता
है, परन्तु सम्यग्ज्ञानी परद्रव्य में इष्ट–अनिष्टकी कल्पना ही नहीं करता है तब राग–द्वेष कैसे
हो? चारित्र मोहके उदयवश होने से कुछ धर्मराग होता है उसको भी राग जानता है भला
नहीं समझता है तब अन्यसे कैसे राग हो? परद्रव्य से राग–द्वेष करता है वह तो अज्ञानी है,
ऐसे जानना।। ५४।।
आगे कहते हैं कि जैसे परद्रव्य में रागभाव होता है वैसे मोक्षके निमित्त भी राग हो तो
है, परन्तु सम्यग्ज्ञानी परद्रव्य में इष्ट–अनिष्टकी कल्पना ही नहीं करता है तब राग–द्वेष कैसे
हो? चारित्र मोहके उदयवश होने से कुछ धर्मराग होता है उसको भी राग जानता है भला
नहीं समझता है तब अन्यसे कैसे राग हो? परद्रव्य से राग–द्वेष करता है वह तो अज्ञानी है,
ऐसे जानना।। ५४।।
आगे कहते हैं कि जैसे परद्रव्य में रागभाव होता है वैसे मोक्षके निमित्त भी राग हो तो
वह राग भी आस्रवका कारण है, उसे भी ज्ञानी नहीं करता हैः–––
आसवहेदु य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि।
सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीओ।। ५५।।
सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीओ।। ५५।।
आस्रवहेतुश्च तथा भावः मोक्षस्य कारणं भवति।
सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात्तु विपरीतः।। ५५।।
सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात्तु विपरीतः।। ५५।।
अर्थः––जैसे परद्रव्यमें रागको कर्मबंधका कारण पहिले कहा वैसे ही राग–भाव
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शुभ अन्य द्रव्ये रागथी मुनि जो करे रुचिभावने,
तो तेह छे अज्ञानी, ने विपरीत तेथी ज्ञानी छे। ५४।
आसरवहेतु भाव ते शिवहेतु छे तेना मते,
तो तेह छे अज्ञानी, ने विपरीत तेथी ज्ञानी छे। ५४।
आसरवहेतु भाव ते शिवहेतु छे तेना मते,
तेथी ज ते छे अज्ञ, आत्मस्वभावथी विपरीत छे। ५५।