मोक्षपाहुड][३०७ यदि मोक्ष के निमित्त भी हो तो आस्रवका ही कारण है, कर्मका बंध ही करता है, इस कारण से जो मोक्षको परद्रव्यकी तरह इष्ट मानकर वैसे ही रागभाव करता है तो वह जीव मुनि भी अज्ञानी है क्योंकि वह आत्मस्वभावसे विपरीत है, उसने आत्मस्वभावको नहीं जाना है। भावार्थः––मोक्ष तो सब कर्मोंसे रहित अपना ही स्वभाव है; अपने को सब कर्मोंसे रहित होना है इसलिये यह भी रागभाव ज्ञानीके नहीं होता है, यदि चारित्र–मोहका उदयरूप राग हो तो उस रागको भी बंधका कारण जानकर रोगके समान छोड़ना चाहे तो वह ज्ञानी है ही, और इस रागभावको भला समझकर प्राप्त करता है तो अज्ञानी है। आत्मा का स्वभाव सब रागादिकों से रहित है उसको इसने नहीं जाना, इसप्रकार रागभावको मोक्षका कारण और अच्छा समझकर करते हैं उसका निषेध है।। ५५।। आगे कहते है कि जो कर्ममात्र से ही सिद्धि मानता है उसने आत्मस्वभावको नहीं जाना है वह अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल हैः–––
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो।। ५६।।
सः तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः।। ५६।।
अर्थः––जिसकी बुद्धि कर्म ही में उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान
उसको खंडरूप दूषण करनेवाला है, इन्द्रियज्ञान खंडखंडरूप है, अपने–अपने विषयको जानता
है, जो जीव इतना मात्रही ज्ञानको मानता है इस कारणसे ऐसा माननेवाला अज्ञानी है जिनमत
को दूषण करता है। (अपने में महादोष उत्पन्न करता है)
भावार्थः––मीमांसक मतवाला कर्मवादी है, सर्वज्ञको नहीं मानता है, इन्द्रिय–ज्ञानमात्रही
आत्माका स्वभाव सबको जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कहा है।