से जो मोक्षको परद्रव्यकी तरह इष्ट मानकर वैसे ही रागभाव करता है तो वह जीव मुनि भी
अज्ञानी है क्योंकि वह आत्मस्वभावसे विपरीत है, उसने आत्मस्वभावको नहीं जाना है।
हो तो उस रागको भी बंधका कारण जानकर रोगके समान छोड़ना चाहे तो वह ज्ञानी है ही,
और इस रागभावको भला समझकर प्राप्त करता है तो अज्ञानी है। आत्मा का स्वभाव सब
रागादिकों से रहित है उसको इसने नहीं जाना, इसप्रकार रागभावको मोक्षका कारण और
अच्छा समझकर करते हैं उसका निषेध है।। ५५।।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो।। ५६।।
सः तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः।। ५६।।
अर्थः––जिसकी बुद्धि कर्म ही में उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान
उसको खंडरूप दूषण करनेवाला है, इन्द्रियज्ञान खंडखंडरूप है, अपने–अपने विषयको जानता
है, जो जीव इतना मात्रही ज्ञानको मानता है इस कारणसे ऐसा माननेवाला अज्ञानी है जिनमत
को दूषण करता है।
आत्माका स्वभाव सबको जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कहा है।