३०८] [अष्टपाहुड परन्तु वह कर्म के निमित्त से आच्छादित होकर इन्द्रियोंके द्वारा क्षयोपशमके निमित्तसे खंडरूप हुआ, खंड–खंड विषयोंको जानता है; [निज बलद्वारा] कर्मोंका नाश होने पर केवलज्ञान प्रगट होता है तब आत्मा सर्वज्ञ होता है, इसप्रकार मीमांसक मतवाला नहीं मानता है अतः वह अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल है, कर्ममात्रमें ही उसकी बुद्धि गत हो रही है, ऐसे कोई और भी मानते हैं वह ऐसा ही जानना।। ५६।। आगे कहते हैं कि जो ज्ञान–चारित्र रहित हो ओर तप–सम्यक्त्व रहित हो तथा अन्य भी क्रिया भावपूर्वक न हो तो इसप्रकार केवल लिंग–भेषमात्र ही से क्या सुख है? अर्थात् कुछ भी नहीं हैः–––
णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं।
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं।। ५७।।
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं।। ५७।।
ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभिः संयुक्तम्।
अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम्।। ५७।।
अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम्।। ५७।।
अर्थः––जहाँ ज्ञान तो चारित्र रहित है, तपयुक्त भी है, परन्तु वह दर्शन अर्थात्
सम्यक्त्व से रहित है, अन्य भी आवश्यक आदि क्रियायें हैं परन्तु उनमें भी शुद्धभाव नहीं है,
इसप्रकार लिंग–भेष ग्रहण करने में क्या सुख है?
भावार्थः––कोई मुनि भेष मात्र से तो मुनि हुआ और शास्त्र भी पढ़ता है; उसको कहते
सम्यक्त्व से रहित है, अन्य भी आवश्यक आदि क्रियायें हैं परन्तु उनमें भी शुद्धभाव नहीं है,
इसप्रकार लिंग–भेष ग्रहण करने में क्या सुख है?
भावार्थः––कोई मुनि भेष मात्र से तो मुनि हुआ और शास्त्र भी पढ़ता है; उसको कहते
हैं कि ––शास्त्र पढ़कर ज्ञान तो किया परन्तु निश्चयचारित्र जो शुद्ध आत्माका अनुभवरूप
तथा बाह्य चारित्र निर्दोष नहीं किया, तपका क्लेश बहुत किया, सम्यक्त्व भावना नहीं हुई और
आवश्यक आदि बाह्य क्रिया की, परन्तु भाव शुद्ध नहीं लगाये तो ऐसे बाह्य भेषमात्र से तो
क्लेश ही हुआ, कुछ शांतभावरूप सुख तो हुआ नहीं और यह भेष परलोक के सुखमें भी
कारण नहीं हआ; इसलिये सम्यक्त्वपूर्वक भेष (–जिन–लिंग) धारण करना श्रेष्ठ है।। ५७।।
तथा बाह्य चारित्र निर्दोष नहीं किया, तपका क्लेश बहुत किया, सम्यक्त्व भावना नहीं हुई और
आवश्यक आदि बाह्य क्रिया की, परन्तु भाव शुद्ध नहीं लगाये तो ऐसे बाह्य भेषमात्र से तो
क्लेश ही हुआ, कुछ शांतभावरूप सुख तो हुआ नहीं और यह भेष परलोक के सुखमें भी
कारण नहीं हआ; इसलिये सम्यक्त्वपूर्वक भेष (–जिन–लिंग) धारण करना श्रेष्ठ है।। ५७।।
आगे सांख्यमती आदिके आशयका निषेध करते हैंः–––
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ज्यां ज्ञान चरितविहीन छे, तपयुक्त पण दगहीन छे,
वळी अन्य कार्यो भावहीन, ते लिंगथी सुख शुं अरे? ५७।